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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेच्या इत्युपदिशति
अधिवासे व विवासे छेदविहगो भवीय सामण्ण । समणो विहरदु णिच परिहरमाणो णिबंधाणि ॥२१३॥ गुरुवास विवासोंमें, मुनित्वके दोषसे रहित होकर ।
परसम्बन्ध हटाकर, वर्ती श्रामण्यमें सम्यक् ।।२१३॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये । श्रमणों विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ।।१३।।
सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेवायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अत प्रात्मन्येवात्मनो नित्याधिवृत्य वासे वा गुरु
. नामसंज्ञ-अधिवास व विवारा छेदविहूण सामण्ण समण णिच्च परिहरमाण णिबंध । धातुसंज्ञकि हर हरणे, भव सत्तायां । प्रातिपदिक- अधिवास वा विवास छदविहीन श्रामण्य श्रमण नित्यं परिहरमाण निवन्ध । मूलधातु-वि हुञ् हरणे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-अधिवासे विवासे सामण्यो श्रामध्ये सप्तमी एकवचन । छेदविरुणो छेदविहीन: समणो श्रमण: परिहरमाणो परिहरमाण :--प्रथमा एकदूर करता हुआ [श्रामण्ये] श्रामण्यमें [छेद विहीनः भूत्वा] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु] श्रमण विहारो।
तात्पर्य --मुनि परद्रव्यसम्पर्कको छोड़कर निर्दोष होता हा विहार करे ।
टीकार्थ--- वास्तव में सभी परद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगके विकारक होनेसे विकाररहित उपयोगरूप श्रामण्यके छेदके प्रायतन हैं; उनके अभावसे ही निर्दोष मुनिपना होता है । इस. लिये प्रात्मामें ही प्रात्माको सदा अधिकृत करके प्रात्माके भीतर बसते हुये अथवा गुरुरूपसे गुरुओंको अधिकृत करके गुरुग्मोंके सहवास में निवास करते हुये या गरुनोंसे विशिष्ट-भिन्न बासमें बसते हुये, सदा ही परद्रव्यप्रतिबंधोंको दूर करता हुअा श्रामण्यमें छेदविहीन होकर घमण वर्तो।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथायमें छिन्न संयमके प्रति संधानका विधान बताया गया था। अब इस माथामें बताया गया है कि साम्यभावके विनाशका प्रायतन होने के कारण परद्रव्यका प्रतिबन्धन दूर कर देना चाहिये ।
तथ्यप्रकाश--(१) सभी परद्रव्यप्रतिबन्ध समताभावके विनाशके आयतन हैं, क्योंकि परद्रव्योंसे सम्बन्ध बनानेसे उपयोग. मलिन हो जाता है। (२) परद्रव्यका सम्बन्ध हटा देनेसे श्रामण्यकी याने साम्यभावकी सिद्धि होती है । (३) श्रामण्यको निर्दोषताके लिये निश्चयसे सपने भापको अपने प्रात्मामें ही स्थापित करके शुद्ध वृत्तिसे रहना चाहिये । (४) श्रामण्य
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BRAHANPURamah
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