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सहजानन्दशास्त्रमालायां श्रेयान्, न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति २०८-२०६॥ बहुवचन । जिणवरेहिं जिनवर:-तृतीया बहुवचन । पण्णत्ता प्रज्ञप्ता:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया । तेसु तेषु-सप्तमी बहुवचन । पमलो प्रमत्तः समणो श्रमणः छेदोवट्ठावग्रो छेदोषस्थापक:-प्रथमा एकवचन । होदि भवति-वर्तमान अन्य ० एकवचन क्रिया । निरुक्ति....त्वरणं ब्रतं वृन व रणे दिवादि के यादि, सम् अयन समितिः सम् इण् गती, क्षियति प्राणी यत्र सा क्षितिः क्षि निवास गत्योः स्वादि लुचनं लुंच: लंच अपनयने चिल्यते आच्छाद्यते अङ्ग अनेन इति चेलं चेलं नास्ति यत्र तत् अचल चिल बसने आच्छादने च स्वादि । समास छिदे सति उपस्थापकः इति छेदोपस्थापकः॥२०८-२०६।। होनेपर प्रायश्चित्तविधानसे पुनः संयममें पाना भी छेदोपस्थापना संयम कहलाता है. परंतु निविकल्प सामायिक संयम और व्रतादिभेदरूप मूलगुण इन दोनोंको तुलनाके प्रकरणसे दोष निवृत्ति वाला छेदोपस्थापनासंयमका ग्रहण नहीं है । (६) सामायिकसंयमार्थी संयमविकल्पोंको अर्थात् २८ मूल गुणोंको पालता है जैसे कि सुवर्णार्थी पुरुष कटककुण्डलादि प्राभूषणोंका परिग्रहण करता है । (१०) सामायिकसयमके विकल्परूप गुण २८ हैं-५ महानत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक, ७ शेष क्रियायें। (११) समस्तसावद्ययोगका प्रत्याख्यान एक महाव्रत है । (१२) महाव्रतकी व्यक्तियां ५ है-अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाबत, अचौर्य महाव्रत, बहाचर्यमहावत व परिग्रहात्यागमहाबत । (१३) श्रमणोंके शेष २३ मूल गुण महाब्रतोंका. अनुसरण करने वाले हैं। (१४) उपेक्षासंयममें न रह पानेसे प्रवृत्ति करनेपर स्वपरकरुणासहित प्रवृत्ति करना समिति है। (१५) बिहार, भाषण, पाहार, उपकरणोंका ग्रहण निक्षेप म मलोत्सर्गमें हिंसापरिहारपूर्वक प्रवृत्ति करना ईयाँ, भाषा, ऐषणा, प्रादाननिक्षेपण व प्रति. ष्ठापना समिति है। (१६) पञ्च इन्द्रिय के विषयोंके वश न होकर उनपर विजय पाना ५ इन्द्रियनिरोध हैं । (१७) समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग ये ६
आवश्यक हैं। (१८) केश लोच निर्वस्त्रता, अस्नान, भूशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन व एक बार लघु भोजन ये ७ शेष गुण हैं । (१६) श्रमणोंके २८ मूल गुणोंमें किसी गुणके पालन में प्रमाद होनेपर उस प्रमादको दूर करके फिर निर्दोष गुणपालन करना छेदोपस्थापना है।
सिद्धान्त--- १-- अविकार ज्ञानस्वभाव शुद्धात्माके अविरुद्ध प्रवर्तनसे मोक्षपुरुषार्थ सम्पन्न होता है।
दृष्टि-१- पुरुषकारनय, क्रियानय, ज्ञानन्य (१८३, १६३, १६४) ।
प्रयोग-श्रामण्यदीक्षा लेकर २८ मूल गुणोंका पालन कर शुद्ध ज्ञानानन्दमय अवस्था की प्राप्तिके साधनभूत निर्विकल्प सामायिक संयमको साधना करना ।।२०८.२०६।।
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