Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 400
________________ ३६६ सहजानन्दशास्त्रमालाया Partite वाद्यौवनोद्रेकविक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च वयोविशिष्ट, निःशेषित्तयथोक्तश्रामण्याचराचरणवि. षयपौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसाधकमाचार्य शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धया मामनुगृहारोत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एमिय तें शुद्धात्मतत्वोफ्लम्भसिद्धिरिति तेन प्राधितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ।।२०३।। एक० । समदहि श्रमण :-तृतीया बहु । तं-द्वि एक पि अपि च इदि इति–अध्यन पदों प्रणत:प्र०ए० कृदंत । पडिच्छ प्रतीच्छ-आज्ञार्थ मध्यम पुरुष एका क्रिया में मां-दिए । अशुगहिदो अनुः गृहीत:-प्रममा एक कृदन्त । निरुक्ति-मण्यने यस्मिन् स गण: गणस्य प्रमुख: गणी गण संख्याने कोल . तीति कुलं कुल संस्त्याने बन्सुषु च भ्वादि अजि गतिक्षेपणयो: स्वादि अजे: वी आदेशः वी असूच वयस् । कुलरूपयोविशिष्टः तं कु० ।। २०३ ।। मुद्रा होती है वैसी ही प्राचार्य में है । (३) जैन शासन में समस्त साधूवोंका एक समान प्राचरण व निवृत्ति होती है, भिन्न भिन्न रूप व मुद्रा नहीं होती। (४) प्राचार्य पञ्च प्राचारोंके प्राचरण करने व कराने में प्रवीणता होने से गुरगविशिष्ट हैं । (५) प्राचार्य कुल क्रमागत क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे कुलविशिष्ट हैं, इसी कारण समस्त पुरुषोंके द्वारा ये निःशंक सेवनीय । होते हैं । (६) अन्तरङ्ग शुद्ध वर्तनाका अनुमान कराने वाला बहिरङ्ग शुद्धरूप होनेसे प्राचार्य रूपविशिष्ट हैं । (७) प्राचार्य योग्यवयोविशिष्ट होते हैं, क्योंकि तभी बचपन व बुढ़ापे में होने वाली बुद्धिविक्लवता नहीं है, और तभी जवानीका लौकिक जोश नहीं है । (८) प्राचार्य सभी श्रमणोंको अधिक इष्ट हैं, क्योंकि प्राचार्य के योग्य पुरुषार्थमें कोई दोष नहीं होने से मुमुक्षुवों द्वारा मान्य हैं । (६) श्रामण्यार्थी सम्मान्य शुद्धात्मोपलम्भके साधक प्राचार्य के निकट जाकर "जनी दीक्षा देकर शुद्धात्मोपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत कीजिये" ऐसा कहकर नम्रीभूत होता है। (१०) प्राचार्य द्वारा "तुम्हारे लिये यह है शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भकी सिद्धि व उसका साधन जैनी दीक्षा इस प्रकार अपने प्रयोजन से युक्त होता हुया अर्थात् दिगम्बरी दीक्षा लेताः' हुमा अनुग्रहीत होता है। सिद्धान्त- (१) निश्चयचारित्रप्रधान वृत्तिसे प्रात्माके ज्ञाननिधिको सिद्धि होती है। दृष्टि-- क्रियानय, पुरुषकारनय, ज्ञाननय (१६३, १८३, १९४) । प्रयोग-प्रसार संसारमें दुर्लभ ज्ञानत्तुयोगको पाकर निज शुद्धात्मभावनासे, दर्शन शान चारित्र तपकी भाराधनासे जन्म सफल करना ॥२०॥ अब इसके बाद भी वह कैसा होता है यह उपदेश करते हैं - [अहं] मैं [परेषां] दूसरोंका [न भवामि ] नहीं हूं [परे मे न] पर मेरे नहीं हैं, [इह] इस लोकमें [मम] मेरा [किंचित्] कुछ भी [न प्रस्ति नहीं है,-- [इति निश्चितः] ऐसा निश्चयवान और [जिते. 12280

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