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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
३०७ अथातोऽपि कोदृशो भवतीत्युपदिशति----
णाहं होमि परे सिंण मे परे णस्थि मज्झमहि किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जघजादरूवधरो ॥२०४॥
मैं परका नहिं मेरे, पर कुछ भी नहीं यौँ सुनिश्चित कर ।
__यथाजात मुद्रा धरि, हो जाता है वह जितेन्द्रिय ।। २०४ ॥ नाह भवामि परेषां न मे परे नास्ति समेह किंचित् । इति निश्चितो जितेन्द्रियः जातो यथाजातरूपधरः ॥
ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि--ग्रहं तावन्न किचिदपि परेषा 10 भवामि परेऽपि न किचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रव्याण परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबन्धशुन्यEMA नामसंज–पा अम्ह पर " अम्ह पर ण अम्ह इह किंचि इदि णिच्छिद जिदिंद जाद जधजादस्वधर । म धातुसंज-हो सत्तायां, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-न अस्मद् पर न अस्मद् पर न अस्मद् इह किंचित इति
निश्चित जितेन्द्रिय जात यथाजातरूपधर । मूलधातु-भू सत्तायों, अस् भुवि । उभयपद विवरण-ण न इदि Mइति-अन्यय । अहं णिरिदो निश्चित: जिदिदो जितेन्द्रिय: जादो जातः जहजादरूवधरो यथाजातरूपधर:-- अयमाः एकवचन । होमि भवामि-वर्तमान उत्तम एक० क्रिया। परेसिं परेषां-पष्ठी बह० मे मझ "न्द्रियः] जितेन्द्रिय होता हुआ [यथाजातरूपधरः] यथाजात रूपधर (सहजरूपधारी) जातः]
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टीकार्थ--तत्पश्चात् श्रामण्यार्थी यथाजातरूपघर होता है | इसका स्पष्टीकरणप्रथम तो मैं किचित्मात्र भी परका नहीं हूं, पर भी किचित्मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त अदुव्य तत्त्वतः परके साथ समस्त सम्बन्धसे रहित हैं। इस कारण इस षद्रव्यात्मक लोकमें प्रात्मासे अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। इस प्रकार निश्चित मति वाला परद्रव्योंके साथ स्वस्वामि संबंध के अाधारभूत इन्द्रियों और नौ इन्द्रियोंके जयसे जितेन्द्रिय होता हुआ वह श्रामयार्थी प्रात्मद्रव्यका यथानिष्पन्न शुद्धरूप धारण करनेसे यथाजातरूपधर होता है।
प्रसंगविवरा—अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि श्रामण्यार्थी प्राचार्य के निकट जाकर उनसे अपनी साधनाके उपायके लिये निवेदन करता है और प्राचार्य महाराज उसे स्वीकार कर लेते हैं। अब इस गाथामें बताया गया है कि अब यह धामण्यार्थी दिगम्बरी सयाजातरूपको धारण कर लेता है।
- तथ्यप्रकाश----(१) श्रामण्यार्थी निरखता है कि मैं दूसरोंका किसी भी प्रकार कुछ नहीं हैं । (२) श्रामण्यार्थी निरखता है कि परपदार्थ भी मेरे कुछ भी नहीं हैं । (३) श्रामयाधीको दृष्टि में निश्चित हो गया कि सर्व द्रव्योंका समस्त परपदार्थोके तत्त्वतः कुछ भी
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