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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यासकोश
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अर्थतस्य लोपलभ्यमानायाः सिद्ध गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गलिङ्गद्वैतमुददिशति जधजादरूवजादं उप्पाडिद केस मंसुगं सुद्ध | रहिदं हिसादीदो अप्पडकम्मं हवदि लिंगं ॥२०५॥ मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं । लिंगं ण परावेक्खं पुणभवकारणं जेन्हं ॥ २०६॥ यथाजात जिममुद्रा, कचलुञ्चन विगतवसनभूषणता । हिसारंभ रहितता, प्रति कर्मत्व मुनिलक्षण ॥२०५॥ मूर्च्छारम्भरहितता, उपयोगयोग विशुद्धसंयुता ।
परापेक्षविरहितता, अपुनर्भवहेतु मुनिलक्षण |
यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशवम के शुद्धम् । रहितं हिसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ।। २०५ ।। सुर्च्छारम्भवियुक्तं युक्तमुपयोगयोग शुद्धिभ्याम् । लिङ्ग न परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥। २०६ ।। श्रात्मनो हि तावदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजात रूपधरत्वप्रत्ययानां मोहरागद्वेषादिभावानां भवत्येवाभावः तदभावात्तुतद्भावभाविनो निवसनभूषाधारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्वस्य
॥ २०६ ॥
नामसंज्ञ - जधजादरूवजाद उप्पाडिद के समसुग सुद्ध रहिद हिसादीदो अप्पादिकम्म लिंग मुच्छारंभविजुत जुत्त उवजोगजोगसुद्धि लिंग ण परायेक्ख अपुणब्भवकारण जेव्ह। धातुसंज्ञ - हब सत्तायां । प्रातिसचिनत्वका सावद्ययोग से युक्तपनेका तथा शारीरिक संस्कारके करनेका प्रभाव होता है, जिससे उस आत्मा के जन्म समयके रूप जैसा रूप सिर और दाढ़ी मूछके बालोंका लोच, शुद्धत्व, हिंसादिरहितपना तथा शारीरिक श्रृंगार-संस्कारका अभाव होता ही है । इसलिये यह बहिरंग लिंग है ।
और फिर आत्मा यथाजाररूपधरत्वसे दूर किये गये अयथाजातरूपवारत्वके कारराभूत मोहरागद्वेषादि भावोंका प्रभाव होनेसे ही, उनके सद्भावमें होने वाले ममत्वके और कर्मप्रक्रमके परिणामका, शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योगकी शुद्धि युक्तपनेका तथा परद्रव्यसे सापेक्षत्वका प्रभाव होनेसे उस आत्माके मूर्छा और प्रारम्भसे रहित पता, उपयोग और योगकी शुद्धिसे युक्तपना तथा परको अपेक्षा से रहितपना होता ही है । इस कारण यह प्रन्तरंग लिंग है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्वं गाथामें बताया गया था कि श्रामण्यार्थी पुरुष भव यथा