Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 389
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टोका ३७५ पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादय संबन्धाः । ततो मम न क्वचनापि ममत्वं सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अकस्य शायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकोलितमश्रितसमावतितप्रतिविम्बितवत्ता क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्धाविविचित्रपर्यायप्रारभारमगाधस्वभावं गम्भोरं समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एवं प्रत्यक्षयन्तं ज्ञेयज्ञायकलक्षणसंबन्धस्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वादुपात्तवैश्वरूप्यमपि सहजानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेनैक्यरूप्यमनुज्झन्तमासंसारमनयव त्व । मूलधातु- ज्ञा अवबोधने, परि वर्ज वर्जने, उप ष्ठा गतिनिवृत्ती । उभयपदविवरण- तम्हा तस्मात्पंचमी एकवचन । तह तथा-अव्यय । जाणित्ता ज्ञात्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । अप्पाण आत्मानं त्यागरूप और निर्ममत्वका ग्रहणरूप विधानके द्वारा सर्व उद्यमसे शुद्धात्मामें प्रवृत्त होता है, क्योंकि दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है । स्पष्टीकरण-वास्तवमें मैं स्वभाबसे ज्ञायक ही है; केवल ज्ञायक होनेसे मेरा समस्त पदार्थोके साथ भी सहज ज्ञेयज्ञायकलक्षण ही संबध है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बंध नहीं हैं; इसलिये मेरा किसीके प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है । अब एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयों को जाननेका स्वभाव होनेसे क्रमश: प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान भाबी विचित्रपर्यायसमूहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमात्रको - मानो वे द्रव्य ज्ञायकमें उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कोलित हो गये हों, डूब गये हों, समागये हों, प्रतिबिम्बित हुये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही प्रत्यक्ष करने वाले, ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंधकी अनिवार्यताके कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होनेसे विश्वरूपताको प्राप्त होते हुए भी सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायकस्वभावके द्वारा एकरूपताको नहीं छोड़ते हुए अनादि संसारसे इसी स्थितिसे स्थित और मोहके द्वारा दूसरे रूपसे जाने गये उस शुद्धात्माको यह मैं मोहको उखाड़ फेंककर, प्रतिनि. कम्प रहता हा जैसाका तैसा ही प्राप्त करता हूं। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञानमें उपयुक्तताके कारण प्रत्यन्त निधि लीनता होनेसे, साधु होनेपर भी साक्षात् सिद्धभूत निज प्रात्माको तथा सिद्धभूत परमात्मानोंको, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भावनमस्कार सदा ही स्वयमेव होनो। जैन इत्यादि...अर्थ----इस प्रकार ज्ञेयतत्वको समझाने वाले जिनेन्द्रप्रोक्त ज्ञानमें व विशाल शब्दब्रह्ममें-- सम्यक्तया अवगाहन करके हम मात्र शुद्ध प्रात्मद्रव्यरूप एक वृत्तिसे सदा युक्त रहते हैं ।।१०।। ज्ञेयोकुर्वन् इत्यादि अर्थ--- मात्मा परमात्मस्वको, शीघ्र प्राप्त करके, अनन्त विश्वको एक समय में शेयरूप करता हुना, प्रतेक प्रकारके ज्ञेयोंको ज्ञान में जानता हुअा और स्वपरप्रकाशक ज्ञानको प्रात्मरूप करता हुआ प्रगट देदीप्यमान होता है ॥११।। ।।२०।। .............HitnammmmmmsA views ।

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