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सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथवं शुद्धात्मोपलम्मास्कि स्यादिति निरूपति
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं॥१६४।। यो जानि विशुद्धात्मा, जो ध्याता परमात्मशक्तीको ।
गेही या निर्गही, मोह ग्रन्थिका क्षपण करता ॥१६४॥ य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा । सामारोऽनागारः क्षपयति स मोहदुर्गन्थिम् ॥ १६४ ॥
अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं प्रवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तेः शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्त शक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाप्रसंचेतनलक्षणं ध्यान स्यात्, ततः साकारोपयुक्त स्थानाकारोपयुक्तस्य वाविशेषेण काग्रचेतन प्रसिद्धरासंसारबद्धढतरमोहदान्थेरुद्ग्रथन । स्यात् । अतः शुद्धात्मोपलम्भस्य मोहाग्रन्थि भेदः फलम् ।।१६४॥
नामसंज्ञ---ज एवं पर अप्पग विसुद्धष्प सागार अणागार त मोहदुग्गठि । वातुसंज्ञ....जाण अवबोधने ज्झा ध्याने, खदाये। प्रातिपदिकन्यत् एवं पर अत्मक विशुद्धात्मन साकार अनाकार तत मोहदूग्रंथि। मूलधातु----ज्ञा अबदोघने, ध्यं चिन्तायां, क्षि क्षये क्षयादेशो विकल्पात क्षप् क्षये वा । उभयपदविवरण-- जो य: विसुद्धप्पा विशुद्वात्मा सागारो साकार: अणगारो अनाकारः सो स:-प्रथमा एकवचत । एवंअन्यय 1 जापिता ज्ञात्वा-सम्बंधार्थप्रक्रिया अव्यय । झादि ध्यायति खवेदि क्षपयति-वर्तमान अन्य एकवचन क्रिया । परं अप्पमं आत्मान-
द्वि० ए० । मोहदुन्गांद मोहदुर्गन्थि-द्वितीया एकवचन निरुक्तिअगं ऋन्छति इति अगारः, थिकौटिल्ये, ग्रन्य बन्धन चुरादि ग्रन्थयति बध्नाति इति प्रतियः । समास--- विमुद्धश्चानो आत्मा चेति विशुद्धात्मा (दुष्टा ग्रन्थिः दुर्गन्धिः मोह एव दुर्गन्थिः मोहदुर्गन्थिः तां मोहदुर्ग:
उपयोग वालेकी-दोनोंको अविशेषरूपसे एकाग्रसंचेतन की प्रसिद्धि होनेसे अनादि संसारसे बंधी हुई अतिदृढ़ मोहदुग्रंथि छूट जाती है ।
इससे (यह कहा गया है कि) मोहाथि भेद (दर्शनमोहरूपी गांठका टूटना) शुद्धात्मा की उपलब्धिका फल है।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि अघ्र वता होनेसे देह धन प्रादिक पदार्थ उपलब्धव्य नहीं हैं । अब इस माथामें बताया गया है कि अभवको छोड़कर ध्रव शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे क्या जाता है ?
तथ्यप्रकाश-(१) अध्र वको छोड़कर अव शुद्ध स्वात्माको उपलब्धि करने वाले मात्माको शुद्धामस्वरूप में प्रवृत्ति होती है जिससे शुद्धात्मत्व होता है । (२) शुद्धात्मामें उप.. योगवृत्ति होने से परमात्मत्वका उत्तम ध्यान होता है । (३) सहजपरमात्मत्व के उच्चम ध्यानमें
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