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प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका
३६७ अर्थकाग्रयसंचेतनलक्षरणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता । समवहिदो सहावे सो अप्पाणं हवाद झादा ॥१६६॥
जो मोहनाशकर्ता, विषयविरक्त मनका निरोधन कर ।
___ सुस्थित स्वभाव में है, वह प्रातम तत्त्वका ध्याता ॥१६६॥ यः क्षपितमोहकलुषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य । समबस्थितस्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ।।१६६।।
पात्मनो हि परिक्षपितमोहपालुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्य भावाद्विषयविरक्तत्वं स्यात्, सतोऽधिकरगाभूतद्रव्यान्तराभावाबुदधिमध्य प्रवृत्तपोतपतत्रिण इव अनन्य शरणस्य मनसो निरोधः स्यात् । ततस्तन्मूलचञ्चलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्वभावे समवस्थानं स्यात् ।
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नामसंज–ज खविदमोहकलुस विसयवि रत्त मण रामवदिद सहाय त अप्प भादार। धातुसंज्ञ-हव सत्तायां । प्रातिपदिक-यत् क्षपितमोहकलुष विषयविरक्त मनस् समट्टिद महाब तत् आत्मन् ध्यातृ 1 मूलघातु-भू सत्तायां । उभयपदविवरण......जो यः खविदमोहकलुसो क्षपितमोहकलुषः विमयविरत्तो विषयविरक्त सो स:-प्रथमा एकवचन । मणो मनः अप्पाणं आत्मा-हितीया एकवचन । णिभित्ता निध्यकारण अनन्त-सहज चैतन्यात्मक स्वभावमें दृढ़तासे रहना होता है । और वह स्वभावसमव. स्थान स्वरूप प्रवर्तमान, ग्रनाकुल, एकाग्रसंचेतन होनेसे ध्यान कहा जाता है। इससे यह निश्चित हा कि ध्यान, स्वभावसमवस्थानरूप होने के कारण प्रात्मासे अनन्यपना होनेसे अशुद्धताके लिये नहीं होता ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें "मोहनन्यिके भेदसे क्या होता है" यह कहा गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि स्वभाव में उपयुक्त भव्यात्मा शुद्धात्माका ध्याता होता है।
तथ्यप्रकाश----(१) परद्रव्यमें विषयों में प्रवृत्तिका मूल कारा मोह है । (२) जिसने मोहकालुष्यका क्षय कर दिया है उसकी पर द्रव्योंमें प्रवृत्ति नहीं होती। (३) निमोह प्रात्माके विषयप्रवृत्तिका प्रभाव हो जानेसे वास्तविक विषयविरक्ति होती है । (४) निर्मोह भव्यात्मा को अविकारस्वात्मसंवेदनसे उत्पन्न सहजानन्दका अनुभव हो चुका है, अतः उसके विषयसुख की आकांक्षा असंभव होनेसे प्रचलित विषयविरक्ति होती है। (५) विषयविरक्ति एवं सहआत्मभक्ति होनेपर प्रशरण होकर मन निरुद्ध हो जाता है । (६) मनका निरोध होनेपर योग और उपयोगको चञ्चलताका विलय हो जाता है 1 (७) योग और उपयोगको चञ्चलताका विलय होनेसे अनन्तसहजचैतन्यात्मक स्वभावमें दृढ़तासे अवस्थान हो जाता है । (८) स्वरूप
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