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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ किंकृतं पुद्गलकर्मणां वैचित्र्यमिति निरूपयति---
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहाम्हि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादि भावहिं॥ १८७॥
परिणमता जब श्रात्मा, रागद्वेषयुत हो शुभाशुभमें ।
तब ज्ञानावरणादिक भावोंसे कर्मरज बँधता ॥१८७।। परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः । तं प्रविशति कमरजो ज्ञानावरणादिभावैः ।। १८७ ||
अस्ति खल्वात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथाहि-----यथा ।
नामसंज्ञ- जदा अप्प सुह असुह रागदोसजुद त कम्मरय णाणावरणादिभाव । धातसंज्ञ-परिणम प्रह्वत्वे, प विस प्रवेशने । प्रातिपदिक-यदा आत्मन शुभ अशुभ रागद्वेषयुत तत् कर्मरजस ज्ञानावरणादि त्तसान्निध्यमें कर्मलिसे बँध जाता है। (७) जब कभी प्रात्मा सोधकारण समयसारके अनुरूप दृष्टि बनाता है और परिणमन करता है तब कर्मधूलिसे मुक्त होने लगता है और अन्तमें पूर्ण तया मुक्त हो जाता है । (८) जीव अशुद्ध परिणामोंसे बंधता है और शुद्ध परिणामोंसे मुक्त । हो जाता है।
सिद्धान्त---(१) सहजात्मस्वरूपके, पालम्बनरूप शुद्धभावके निमिससे कर्म दूर हो जाते हैं। (२) विकारभावके प्राश्रयरूप प्रशुद्ध भावके निमित्तसे जीव कर्मधूलिसे बंध जाता
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दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४अ)।
प्रयोग-निज सहज चित्स्वभावके भूलनेके कारण उत्पन्न हुए विकार ही कर्मबन्धके । कारण है सो कर्मविपाकसे छूटने के लिये निज सहजचित्स्वभावमें प्रात्मत्व अनुभवना ॥१६॥
अब पुद्गल कर्मोंकी विचित्रता किसके द्वारा की गई है ? इसका निरूपण करते हैं[यदा] जब [मात्मा] प्रात्मा [रागद्वेषयुतः] रागद्वेषयुक्त होता हुआ [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ भावमें [परिमपति] परिणामता है, तब [कर्मरजः] कर्मधुलि [ज्ञानावरणावि भावः ज्ञानावरणादिरूपसे [तं] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है ।
तात्पर्य-जीवके शुभ अशुभ विकारका निमित्त पाकर कर्म ज्ञानावरणादिरूपसे प्रवेश करता है।
टोकार्थ----जैसे नवमेधजलके भूमिसंयोगरूप परिणामके समय अन्य पुद्गलपरिणाम