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सहजानन्दशास्त्रमालायां प्रथाशुद्वनयादशुद्धात्मलाभ एवेत्यावेदयति
ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेमंति देहदविणेसु । सो सामण्णां चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥१६॥
देह धनोंमें मेरा, यह है यों जो ममत्व नहिं तजता ।
सो श्रामण्य छोड़कर, कुमार्गको प्राप्त होता है ॥१६॥ न त्यजति यस्तु ममतामहं ममेदमिति देहद्रविणेषु । स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ।। १६० ।।।
यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोहः सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणादौ परद्रव्ये ममत्वं न जहाति
नामसंज्ञ-ण ज दु ममत्ति अम्ह अम्ह इम ति देहदविण त सामण्ण पडिवण्ण उम्मग्ग । धातुसंज्ञचय त्यागे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-न यत् तु ममता अस्मद् अस्मद् इदम् इति देहद्रविण तत् श्रामण्य चित्प्रतिभासमात्र अनुभवना ।।१८६।।
अब अशुद्धनयसे अशुद्ध प्रात्माका ही लाभ होता है यह कहते हैं--- [यः तु] जो [देहद्रविणेषु] देह-धनादिकमें [अहं इदं मम इदम् ] 'मैं यह हूं और मेरा यह है' [इति ममतां] ऐसी ममताको [न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [सः] वह [श्रामण्यं त्यक्त्वा] श्रमणपने । को छोड़कर [उन्मार्ग प्रतिपन्नः भवति] उन्मार्गको प्राप्त होता है।
तात्पर्य-जो देह धन प्रादिमें अहंभाव व ममत्व नहीं छोड़ता वह मुनिपदसे च्युत हो जाता है।
टोकार्थ-जो आत्मा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्चयन यसे निरपेक्ष रहता हा व अशुद्धद्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहार नयसे उत्पन्न हुआ है मोह जिसके ऐसा वर्तता हा 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयतासे देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह अात्मा वास्तव में शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्गको दूरसे छोड़कर अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्गको ही प्राप्त होता है । इससे निश्चित होता है कि अशुद्ध नयसे अशुद्धात्माका ही लाभ होता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें बन्धसमास बताकर जीवको अशुद्धता बताई और साथ ही स्वभाव दृष्टि से, स्वसत्तापेक्षासे जीवकी शुद्धताका संकेत किया गया। अब इस गाथामें बताया गया है कि अशुद्ध प्ररूपक नयके अवलम्बनसे अशुद्धात्मत्वका ही लाभ होता है ।
तथ्यप्रकाश-(१) निश्चयनय शुद्ध (केवल एक) द्रव्यका निरूपण करने वाला है । (२) व्यवहारनय अशुद्ध (सम्बद्ध अन्य द्रव्यसहित) द्रव्यका निरूपण करने वाला है।
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