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सहजानन्दशास्त्रमालाया अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिट्टो । अरहतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥१८६॥ यह सब बन्धनिरूपण, प्रभुने यतिको कहा विनिश्चयसे ।
व्यवहारवचन इससे, अन्यान्य प्रकार बतलाया ॥१८॥ एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्ट: । अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥ १८६॥
रागपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वतम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः यस्तु पुद्गलपरिणाम प्रात्मनः कर्म स एव पुण्यपापढतं पद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनि
नामसंज्ञ- एत बंधसमास जीव णिच्छय णिढि अरहंत जदि ववहार अण्णहा भणिद। धातुसंज्ञ-भण कथने । प्रातिपदिक—एतत् बन्धसमास जीव निश्चय निर्दिष्ट अर्हत् यति ववहार अन्यथा भणित । मूलधातु-भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण-एसो एषः बंधसमासो बन्धसमासः-प्रथमा एक०। जीवाणं जोवानां जदीणं यतीनां-षष्ठी बहु० । णिच्छयेण निश्चयेन-तृतीया एक० । णिद्दिट्ठो निदिष्ट: भणिदो
___ अब निश्चय और व्यवहारका अविरोध दिखाते हैं - [एषः] यह (पूर्वोक्त प्रकारसे), [जीवानां] जीवोंके [बंधसमासः] बन्धका संक्षेप [अर्हद्भिः] अर्हन्त भगवानने [यतीनां यतियोंसे [निश्चयेन] निश्चयसे [निर्दिष्टः] कहा गया है; [व्यवहारः] और द्रव्यकर्मरूप व्यवहारबन्ध [अन्यथा] व्यवहारसे [भरिणतः] कहा गया है।
तात्पर्य ---उपयोगमें रागादिका आना निश्चयसे बन्ध है व जीवके साथ कर्मोंका लिप्त होना व्यवहारसे बन्ध है।
टोकार्थ-रागपरिणाम ही प्रात्माका कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है; रागपरिणाम का ही प्रात्मा कर्ता है, उसीका ग्रहण करने वाला है और उसोका त्याग करने वाला है;इसी प्रकार यह, शुद्धद्रव्यका निरूपण निश्चयनय है । और जो पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म है, वही पुण्य पापरूप द्वत है; पुद्गल परिणामका प्रात्मा कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला पौर छोड़ने वाला है, यह अशुद्ध द्रव्यका निरूपरणस्वरूप व्यवहारनय है । ये दोनों नय हैं; क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों प्रकारसे द्रव्य जाना जा रहा है । किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम अर्थात् उत्कृष्टसाधक होनेसे ग्रहण किया गया है; (क्योंकि) साध्यके ही शुद्धपना होनेसे द्रव्य के शुद्धपनेका प्रकाशक होनेसे निश्चयनय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्वका द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं।