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राहजानन्दशास्त्रमालायां अर्थक एवं आत्मा बन्ध इति विभावयति
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसे हिं। कन्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ॥१८॥
सप्रदेश वह प्रात्मा, कषाययुत मोह राग द्वषोंसे ।
कर्मरज लिप्त होता, इसको ही बन्ध बतलाया ।।१८८॥ सप्रदेश: स आत्मा कषायितो मोहरामहर्षः । कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपित : रामये ।। १८८ ।।
यथाश्र सप्रदेशत्वे सलि लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मनिष्ठरङ्गादिभिरुपश्लिष्टमेक रक्त नामसंज्ञ-सपदेश त अप्प कसायिद मोहागदोस कम्मरज सिलिट्ठ बंध त्ति परविद समय । धातुसंजकस तन् करो, सिलीस आलिंगने । प्रातिपदिक-सप्रदेश तत् आत्मन् कषायित मोहरागहष कर्मरजसः दितीबसंक्लेशभावका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियोंमें हालाहल समान नोब अनुभाग बघता है । {१०) जीवकी जघन्यविशुद्धिका निमित्त पाकर शुभप्रकृतियों में गुड़ समान जघन्य अनुभाग बंधता है । (११) जीवके जवन्यसंक्लेशका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियोंमें निम्बसमान जघन्य अनुभाग होता है । (१२) मध्यमविशुद्धिका निमित्त पाकर शुभ कर्मप्रकृतियोंमें खंड शक्कर समान मध्यम अनुभाग होता है । (१३) मध्यमसंक्लेशभावका निमित्त पाकर अशुभप्रकृतियों में काओर विष समान मध्यम अनुभाग बॅबता है । (१४) ये विविध कर्मपुद्गल हेतुभूत हैं और कर्मप्रकृतिरहित सहजानन्दस्वभाव परमात्मद्रव्यसे भिन्न हैं। (१५) निश्चयतः कर्मपुद्गलों को समस्त विचित्रतायें पुद्गलकृत हैं जोवकृत नहीं है ।
सिद्धान्त--१- पुण्य, पाप, तीव्रानुभाग, मन्दानुभाग आदि सभी प्रकारके कर्म कर्मः स्वदृष्टिसे सदृश हैं । २- प्रकृति, अनुभाग आदिको विचिषतासे पुण्य पाप आदि कर्मों में पर. स्पर विलक्षणता, विचित्रता व विविधता है।
दृष्टि---१-- सादृश्यनय (२०२) । २.- वैलक्षण्यनय (२०३) ।
प्रयोग....बन्धनमुक्त होने के लिये पुण्य पापकर्म व उसके निमित्तभूत शुभ अशुभ भाव समस्त परभावोंसे उपेक्षा कर निज सहज चित्स्वभावको उपासना करना ॥१८७॥
अब अकेला ही आत्मा बंध है यह प्रकट करते हैं -- [सप्रदेशः] प्रदेशयुक्त [सः आ स्मा] वह प्रात्मा [मोहरागद्वषैः] मोह-राग-द्धषके द्वारा [कषायितः] कषायित होता हुआ
कर्मरजोभिः श्लिष्टः] कर्मरजसे लिप्त होता है [बंधः इति समये प्ररूपितः] यही अभेदनायसे बंध है ऐसा आगममें कहा गया है।
तात्पर्य----सोपाधि विकारी जीव स्वयं बन्धरूप हो रहा है।
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