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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३५३ दृस्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषः कषायितत्वात् कर्मरजोभिरुपश्लिष्ट एको बन्धो द्रष्टव्यः शुद्वद्रव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ।।१८८॥ श्लिष्ट बन्ध इति प्ररूपित समय । मूलधातु - कष तन करणे, श्लिष् आलिङ्गने । उभयपदविवरण सपदेसो सप्रदेशः सो स: अप्पा आत्मा कसायिदो कषायित:-प्रथमा एक । मोहरागदोसेहिं मोहरागद्वषै-- तृतीया बहु० । कम्मरजेहि कर्मरजोभिः-तृ० बहु०। सिलिट्ठो श्लिष्ट:-प्र० ए० कृदन्त । बंधो बन्धः परूः विदो प्ररूपित:-प्रथमा एक० । समये-सप्तमी एक० । निरुक्ति-कषनं कषायः कषायः संजातः अस्य स कषायितः । समास-मोहश्च रागश्च द्वेषश्च मोहरागद्वषा: तैः मोहरागद्वषैः, कर्माणि च तानि रजांसि चेति कर्मरजांति तैः कर्मरजोभिः ।।१८८।।
टीकार्थ-जैसे जगत में प्रदेशवानपना होनेपर लोध-फिटकरी आदिसे कसैलापन होने से मंजीठादिके रंगसे संबद्ध होता हुअा वस्त्र अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी प्रदेशवान होनेसे यथाकाल मोह-राग द्वेषके द्वारा कषायित (मलिन–रंगा हुआ) होनेसे कर्मधूलि द्वारा श्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बंध है; ऐसा मानना चाहिये, क्योंकि निश्चय शुद्ध द्रव्यको विषय करता है। . प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें पुद्गलक र्मोकी विचित्रताका कारण बताया गया था। अब इस गाथामें निश्चयतः एक इस जीवको बन्ध कहा गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात प्रदेश वाला होनेसे सप्रदेश है । (२) सप्रदेश यह प्रात्मा यथासमय मोह रागद्वेषसे कषायित होनेसे कर्मधूलिसे बद्ध होता हुअा यही अभेदनयसे बन्ध कहलाता है । (३) लोध फिटकरी आदि द्रव्योंसे कसैला किया गया वस्त्र भी तो मंजीठ आदि रङ्गोंसे रञ्जित होता हुआ अभेदसे रक्त (लाल) ही कहा जाता है । (४) केवल एक द्रव्य को देखकर परप्रसंगसे उसपर हुए प्रभावको वह द्रव्य ही वैसा बताना असद्भूत व्यवहार है। (५) असद्भूतव्यवहार प्रशुद्ध द्रव्यके निरूपणका प्रयोजक है । (६) अशुद्धनिश्चयनय से भावबन्ध जीव है, क्योंकि निश्चयनयका विषय शुद्ध (एक) द्रव्य होता है । (७) शुद्ध अर्थ यहाँ अन्य द्रव्यसे पृथक् एक द्रव्य है ।।
सिद्धान्त--(१) निश्चयसे भावबन्ध जीव है। (२) मोहरागद्वेषसे कषायित प्रोत्मा के कर्मरजसे हुए बन्धको जीव कहना उपचार है।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। २- एकजातिकार्ये अन्यजातिकारणोपचारक व्यवहार (१३३)।
प्रयोग–बन्धविपदासे बचनेके लिये प्रबन्ध अविकार सहज चित्स्वरूप में आत्मत्व अनुभवना ।।१८।।