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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथात्मनः किं कर्मेति निरूपयति-----
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । पोग्गलदवमयाणं ण द् कत्ता सव्व भावाणं ॥१८४॥ करता स्वभावको यह, आत्मा निजभावका हि कर्ता है ।
किन्तु नहीं कर्ता यह, पुद्गलमय सर्व भाबोंका ॥१६॥ कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् । १८४।
प्रात्मा हि तावत्स्वं भावं करोति तस्य स्वधर्मत्वादात्मनस्तथाभवन शक्तिसंभवेनावश्य. मेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतन्त्र: कुणिस्तस्य कर्तावश्यं स्यात्, क्रियमाणश्चात्मना स्वो
नामसंज्ञ---कुन्वंत सभाव अत्त हि कत्तार सग भाव पोग्गलदव्त्रमय ण दु कत्तार सव्वभाव । धातुसंज-कुब्ब करणे, हब सत्तायां । प्रातिपदिक---कुर्वत् स्वभाव आत्मन् हि कर्तृ स्वक भाब पुद्गलद्रव्यमय न तु कर्तृ सर्वभाव । मूलधातु---डुकृञ् करणे। उभयपदविवरण..... कुवं कुर्वन-प्रथमा एक० कृदंत 1 प्रतिनियत लक्षणोंसे स्वपरभेदविज्ञान करना ॥१३॥
अब यह निरूपण करते हैं कि आत्माका कर्म क्या है--[स्वभावं कुर्वन्] अपने भाव को करता हुआ आत्मा] ग्रात्मा [हि] निश्चयसे स्विकस्य भावस्य] अपने भावका [कर्ता भवति] कर्ता है; [तु] किन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका [कर्ता न] कर्ता नहीं है।
___ तात्पर्य आत्मा परचतुष्टयसे नहीं है, अतः प्रात्मा पुद्गलमय सभी भावोंका कर्ता नहीं, मात्र अपने भावका कर्ता है।
टोकार्थ---प्रथम तो आत्मा वास्तवमें अपने भावको करता है, क्योंकि वह भाव उसका स्व धर्म है, इसलिये प्रात्माको उसरूप होनेको शक्तिको संभव है, अता वह भाव अवश्यमेव मात्माका कार्य है । और वह प्रात्मा अपने भावको स्वतंत्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है, और स्वभाव अात्माके द्वारा किया जाता हुआ अात्माके द्वारा प्राप्य होनेसे अवश्य ही प्रात्माका कर्म है । इस प्रकार स्वपरिणाम प्रात्माका कर्म है । परन्तु, प्रात्मा पुद्गलके भावों को नहीं करता, क्योंकि वे परके धर्म हैं, इसलिये आत्माके उत्तरूप होनेकी शक्तिका असंभव होनेसे वे अात्माका कार्य नहीं है । इस कारण वह आत्मा उन्हें न करता हुअा उनका कर्ता नहीं होता, और वे प्रातमाके द्वार। न किये जाते हुये उसके कर्म नहीं हैं । इस प्रकार पुद्गलपरिणाम प्रात्माका कर्म नहीं है।
प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथामें स्वपरविभागके ज्ञान व अज्ञानको स्वपरद्रच्यकी
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