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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन स्वपरविभागज्ञानाशाने अवधारयति
जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज। कीरदि अज्झवसाणं यहं ममेमं ति मोहादो ॥१८३॥ जो स्वभाव आश्रय कर, नहिं जाने स्वपरद्रव्यको ऐसे ।
वह मोही यह मेरा, ऐसा भ्रम मोहसे करता ॥१३॥ यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य । कुरुतेऽध्यवसातमहं मभेदमिति मोहार ।। १८३ ॥
यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन बीदपुद्गलयो: स्वपरविभागंपश्यति
नामसंज्ञ.....ज ण वि एवं परमप्प सहाव अज्झवसाण अम्ह अम्ह इम ति मोह । धातुसंज- आ सद गमनविशरणयोः, कर कारणे । प्रातिपदिक-बत् न एवं अपि परमात्मन् स्वभाव अध्यवसान अस्मत् अस्मत् इदम् इति मोह । मूलधातु---आ शद् ल गती, बुकृत्र करो । उभयपदविवरण- जो य:-प्रथमा एक गान वि अगि एवं ति इति-अव्यय । परमप्पाणं परमात्मानं सहानं स्वभावं-द्वितीया एक० । आसेज्ज एक ज्ञायकस्वरूप परमात्मतत्त्वको भावना न होनेसे कर्मोदयज रागादिविकारको निमित्तमान करके कार्मागणवर्गणावों नामर्मत्व बँध गया था।
सिद्धान्त-१- छह कायोंको जीव कहना उपचार है। दृष्टि---१- एकजातिद्रव्ये अन्यजालिद्रव्योपचारक असद्भून व्यवहार (१०६)।
प्रयोग-संसारसंकटोंसे शरीरोंसे मुक्ति पानेके अभिलाषियों को भेदविज्ञान करके पर. द्रव्यसे उपयोगको हटाकर स्वद्रव्यमें उपयुक्त होना चाहिये ॥१८२॥
अब जीवको स्वपरविभागज्ञानको स्वद्रव्यप्रवृत्तिके निमित्तरूपसे व स्वपरविभागके प्रज्ञानको परद्रव्यप्रवृत्तिके निमित्तरूपसे अवधारित करते हैं-या जो एवं] इस प्रकार [स्वभावम् प्रासाद्य] जीव-पुद्गलके स्वभावको निश्चित करके [परम् आत्मानं] परको और स्वको [न एव जानाति] नहीं जानता, [मोहात्] वह मोहसे अहम् इदं। मैं यह हं, मिम दं] मेरा यह है,' [इति] इस प्रकार [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करता है ।
तात्पर्य--स्व परके भेदज्ञानसे रहित जीव मिथ्या भाव कर कष्ट पाते हैं।
टीकार्थ----जो आत्मा इस प्रकार जीव और पुद्गलके अपने-अपने निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभावके द्वारा स्व-परके विभागको नहीं देखता, वही प्रात्मा 'मैं यह ई, मेरा यह है' इस प्रकार मोहसे परद्रव्यको अपने रूपसे मानता है, दूसरा नहीं । इससे यह निश्चित हा कि जीवको परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्वपरके ज्ञानका अभावमात्र ही है, और सामर्थ्यसे निश्चित हुआ कि स्वद्रव्य में प्रवृत्तिका निमित्त उसका अभाव है ।
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