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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
स्वात् शुभपरिणामः पुण्यं पापपुद्गलबन्धकारस्त्वादशुभ परिणामः पापम् | अविशिष्टपरिणामतू शुद्धत्वेकत्वान्नास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकर्म पुद्गलक्षयकारणत्वात्संसारदुःखहेतुकर्म पुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ||१८||
वयकारणं दुःखक्षयकारणं - प्रथमा एकवचन । अष्णोसु अन्येषु सप्तमी बहु० । समये - सप्तमीएकवचन । निरुक्ति-सम् अयनं समयः । समास-शुभश्चासौ परिणामश्चेति शुभपरिणाम:, दुःखानां क्षयः दुःखक्षयः, तस्य कारणं दुःखक्षयकारणं ॥ १८ ॥
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भेद नहीं है । वह विशिष्ट परिणाम समयपर संसार दुःखके हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षयका कारण होनेंस संसारदुःखका हेतुभूत कर्मपुद्गलक्षयात्मक मोक्ष हो है ।
प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में द्रव्यबन्धके कारणभूत विकारपरिणामको शुभ व अशुभ दो प्रकारका बताया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि अविशिष्ट परि ग्राम दुःखरहित होने का कारण है ।
तथ्यप्रकाश - ( २ ) परिणाम दो प्रकारका होता है कोई परद्रव्यप्रवृत्त है. कोई स्वद्रव्यप्रवृत्त है । ( २ ) परद्रव्यमें लगा हुआ परिणाम विशिष्ट परिणाम कहलाता है । (३) विशिष्ट परिणाम के दो प्रकार हैं- शुभ परिणाम व अशुभपरिणाम । ( ४ ) शुभ परिणाम पुण्यसाव है, क्योंकि वह पुण्यपुद्गलोंके बन्धका कारण है । ( ५ ) अशुभ परिणाम पापभाव है, क्योंकि वह पागलों के बन्धका कारण है । (६) शुभाशुभ भावरहित शुद्ध भावको वि शिष्ट परिणाम कहते हैं । ( ७ ) अविशिष्ट परिणाम एकरूप है, उसके विशेष अर्थात् भेद नहीं है । (८) विशिष्ट परिणाम संसारदुःखके कारणभूत कर्मपुद्गलोंके क्षयका कारणभूत है | (e) समस्त कर्मपुद्गलोंके क्षय होनेका नाम मोक्ष है ।
सिद्धान्त - १- शुभपरिणाम पुण्य है व अशुभपरिणाम पाप है ।
दृष्टि - १ - एकजातिकारणे अन्यजातिकार्योपचारक व्यवहार (१३७ ) |
प्रयोग - बन्धहेतुभूत शुभाशुभ परिणामोंसे रहित होनेके लिये प्रविशिष्ट सहज चैतत्यस्वरूप में श्रात्मत्वको अनुभवना ॥ १५१ ॥
अब जो की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्यसे निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्व-परका विभाग दिखलाते है - [ अथ ] अब जो [पृथिवीप्रमुखाः] पृथ्वी प्रादि [ जीव निकायाः ] जीवनिकाय [स्थावराः च त्रसाः] स्थावर और त्रस वा अन्ये ] जीवसे अन्य हैं, [च] और [जीवः अपि
भरिणताः ] कहे गये हैं, [ते] वें [जी
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जीव भो [तेभ्यः श्रन्यः ] उनसे प्रत्य
'तात्पर्य - परमार्थतः पृथिवी आदि ६ काय जीवसे अन्य है, जीव उनसे अन्य है । 2
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