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सहजानन्दशास्त्रमालायां
स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव सामध्यत्रिवद्रव्य प्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ॥१८३॥ । आसाद्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त । कीरइ कुरुते-वर्तमान अन्य एका किया । अज्भवसाणं अध्ययसानं-- द्वितीया एका० । अहं-प्र० एक० । मग-षष्ठी एक० 1 इमं .इद-प्रथमा एक० । मोहादो मोहात-पंचमी एकवचन । निरुक्ति- अध्यवसनं अध्यवसानं अधि अव षोन्त कर्मणि उपसगदिर्थपरिवर्तन । समास-परा मा लक्ष्मीः विशते यत्र स: परम: परमश्वासी आत्मा चेति परमात्मा)तं परमात्मानं ॥१८॥
प्रसंगविवरणअनन्तरपूर्व गाथामे पर द्रव्यानिवृत्ति के लिय व स्वद्रव्यप्रवृत्ति के लिये स्वपरविभाग दिखाया गया था। अब इस गाथामें यह अवधारित कराया गया है कि स्वपरविभागका ज्ञान स्वद्रव्यप्रवृत्तिका निमित्त है और स्वपर विभागका अज्ञान परद्रव्यप्रवृत्तिका निमित्त है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अज्ञानी प्राणी मोहसे ही परद्रव्य को प्रात्मीयरूपमे मानता है। (२) परद्रव्यको यह मैं हूं या यह मेरा है इस प्रकारकी आस्था होना आत्मीयरूपसे मानना कहलाता है । (३) परद्रव्यको प्रात्मीय वही जीव समझता है जो जीव व पुद्गलोंका प्रतिनियत चेतन अचेतन स्वभावरूपसे स्व व परका विभाग नहीं देखता है । (४) स्वपरका भेदा. विज्ञान होनेपर परद्रव्यसे निवृत्ति व स्वद्रक्ष्य में प्रवृत्ति होती है। (५) स्व परका भेदविज्ञान न होनेपर स्वद्रव्यकी बेसुधी व परद्रव्यमें प्रवृत्ति होती है । (६) अहंकारममकाररहित अविकारस्वभाव अन्तस्तत्वको सुध न होनेसे अज्ञ जन्तु रागादिक विकारोको व परद्रव्योंको यह मैं हूं व ये मेरे हैं ऐसी प्रतीति करता है।
सिद्धान्त-(१) स्त्री पुत्र पशु मित्र आदिको ये मेरे हैं यह कथन मात्र उपचार है । (२) धन मकान आदिको ये मेरे हैं यह कथन भी मात्र उपचार है। (३) आभूषणसज्जित पुत्री पुत्र प्रादिको ये मेरे हैं यह कथन उपचार है । (४) ग्राम नगर मेरे हैं यह कथन भी उपचार है । (५) रागादिक भावको प्रात्मा मानना उपचार है । (६) शरीर प्रादिको प्रातमा मानना उपचार है।
दृष्टि---१- असंश्लिष्ट स्थजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२४) । २- असंश्लिष्ट विजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२६) । ३- संश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भुत व्यवहार (१२७)। ४- असंश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचारित असद्भुत व्यवहार (१२८)। ५- उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार (१०४)।- एकजातिद्रव्ये अन्यद्रव्योपचारक व्यवहार ।
प्रयोग—स्वद्रव्यप्रवृत्तिको ही शाश्वत शुद्ध प्रानन्दका उपाय जानकर उसके लिये.
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