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रुमा
प्रवचनसार-सप्तदशांगी रीवा
पदमलयोः परस्पर परिणाम मित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तद यन्त्रः ११७७) राम कयने माह स्थापना ग्रामप्रवेशेषु । प्रातिपदिक-पही पाल बन्ध जीय रागादि अन्योन्द्र अवगाह
मामलजीवात्मक भणन । मुला--मण शब्दार्थः माह त्रिलोड़ने । उभयपदविवरण-फासहि स्पर्स: रागसादीहि रामादिभिः-नृनीमा बह। पोई पुन दाना-पाठी यह ० । बंधों बन्धः अवगारे अवगाह: सारजीवश्यगो पृदयामजीवात्मका:-'प्रथमा एक मशिदो भणित:-प्रथमा किवचन बृदन्त क्रिया। पारोपण अन्योन्य क्रियाविशेषण अन्योन्य मया यातया अथवा वम द्वि० एक० (अवगाहः) । निरुक्ति--- पवन बन्यः, अवगाहमें अवगाः ।।१७ : है।
तथ्यप्रकाश... १- कर्मोका मिन्धयने व क्षय के विशेषोंके द्वारा जो पूर्ववद्ध कार्माण हालसे नद घुगन्न बत्दापरिणाम है वह पृद् हुन्नबन्ध है । २-- कारिणतर्गयों में कर्मत्व. गरिमामात हो होकर तत्क्षण कार्मा शरीर से बैंध जाना द्रव्यबन्ध है। ३- निरुपग चैतन्य स्वरुप पन्तस्तत्त्वको भावना रहित जोत्रका प्रोवाधिक मोह राग द्वेष पर्याय के साथ एकस्व. परिणाम हो जाना जीवन्ध है। ४- त्रिकामाबों द्वारा जीवस्वभाव तिरोहित हो जाना नादवन्ध है । ५- जीवस्वभाव पर विचार भावोका लद जाना भावबन्ध है ! ६- निविकार. स्ववेदतज्ञानरहितपना होने से रामटेष परिणत जीव का और बंधयोग्य स्निग्ध रूक्ष परिणत कर्म
पालको परस्पर परिणमननिमित्त मात्रसे अति विशिष्ट परस्पर अन गाह हो जाना उभयचंध है । का सिद्धान्त ..... () श्रावबन्ध केवल जीवन्ध है । (6) द्रव्यबन्ध केवलपुद्गलबन्ध है । E) उभयवन्य जीद व पुद्गल का परस्पर बंध हैं।
दृष्टि-५- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- शुद्धनिश्चय नय, निमित्तदृष्टि (४७, र २५ । ३- निमितधि (५३) ।
- प्रयोग.. अन्तर्बाह्य उपाधिस हटने के लिये निरुपाधि चैतन्य भाव में अात्मत्व अनुभबना ॥५.७७ Me अव द्रव्यबंधको भावबंधोतकताको उज्जीवित करते हैं- [सः प्रात्मा] वह प्रात्मा
प्रदेशः सप्रदेश हैं: [तेषु प्रदेशेषु उन प्रदेशमें युद्गलाः कायाः] पुद्गलसमूह [प्रविशति] प्रवेश करते हैं. [१] और [बध्यन्ते बंधते हैं [यथायोग्यं तिति] यथायोग्य रहते हैं, कर यान्ति] जाते हैं।
तात्पर्य-प्रदेश प्रात्मामें कर्मरकंध माते हैं, बंधते हैं, ठहरते हैं, फिर निकलते हैं । _टोकार्थ-- बह आत्मा लोका काशके बराबर असंख्यप्रदेश बाला होनेसे सप्रदेश है । को उसके इन प्रदेशों में कायवर्गरणा, वचनवगंगा और मनोवर्गणाका पालम्बन वाला परिस्पन्द बस प्रकारसे होता है उस प्रकार से कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव परिस्पन्द वाले होते हुये प्रवेश