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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका । अथ कि तहि जीवस्य शरीरादिसर्वपरद्रव्यविभागसाधनमसाधारण स्थलक्षणमित्यावेदयति
वारसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागणामसह। जाण अलिंगरगहणं जीवमणिदिवसंठाणं ॥१७२।। अरस प्ररूप अगंधी अव्यक्त अशब्द चेतनागुरगमय ।।
चिहाग्रहण अरु स्वयं असंस्थान जीवको जानो ॥१७२॥ अरसमरूपमगन्धमध्यक्तं चेतनागुणमान्दम् । जानी ह्यलिङ्गग्रहणं जीबमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।। १७२।।
यात्मनो हि रसरूपगन्धगुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शगुणव्यक्त्यभावस्वभावत्वात् शब्दप। यिाभावस्वभावत्वात्तथा सन्मूलादलिङ्गमाह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावस्वभावत्वावपुद्गलद्रव्यविभागसाधन मरसत्व मरूपत्वमगन्धत्वमव्यक्तत्वमशब्दत्वमलिङ्गग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं वास्ति । सकसपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्यविभागसाधनं तु चेतनागुरगत्वमस्ति । तदेव च तस्य स्त्रजीवद्रव्यमा
नामसंज-अरस अरू व अगंध अब्बत्त चेदणागुण असह अलिंगरगहण जीव' अणिविट्ठसंठवण । धातुसंक्ष-आण अवबोधने, लिंग आलिंगने चित्रीकरणे । प्रातिपदिक-अरस अरूप अगन्ध अव्यक्त चेतनागुण कामणिशरीर कार्मागावर्गणात्मक पुद्गलस्कन्धोंसे बनता है । (६) अात्मा अमूर्त चैतन्यस्वरूप है। (७) प्रात्मा शरीर नहीं है, प्रात्माके शरोरपना नहीं है । (८) आत्माका सत्त्व शरीरसे प्रत्यन्त भिन्न है, अतः निश्चयतः आत्माके शरीरकर्तृत्वकी चर्चा बेतुकी है।
सिद्धान्त ---- १- शरीरको देखकर उसे जीव कहना उपचार है। २. जीवको शरीर का कर्ता कहना लोकोपचार है।
दृष्टि-.-- १- एकजातिपर्याय अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१२१)।२परकर्तृत्व उपचारत असद्भूतव्यवहार (१२६ब) ।
प्रयोग.... पवित्र शुद्ध प्रानन्दमय होनेके लिये शरीरसे विविक्त सहजानन्दमय प्रात्मतत्वरूप अपने को निरखना ११७१।।
सब फिर जीवका, शरीरादि सर्वपरद्रव्योंसे विभागका साधनभूत असाधारण स्वलक्षण । क्या है ? यह कहते हैं. जोवम्] जीवको [अरसम्] रसरहित, [अरूपम्] रूपरहित, [अगं.
धम्] गन्धरहित, [अव्यक्तम् ] अध्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतनागुणमय, [अशब्दम्] शब्दरहित, प्रिलिंगग्रहणम् ] लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य, और [अनिदिष्टिसंस्थानम्] जिसका कोई संस्थान नहीं कहा गया ऐसा [जानीहि] जानो।।
तात्पर्य-जीन स्पर्शरसगंज वर्णरहित अमूर्त चैतन्यस्वभावमय है। टोकार्थ.... अात्मा रस, रूप व गंधगुणके अभावरूप स्वभाव वाला होनेसे, स्पर्शगुण रूप
RANA
JAIN