________________
855
R
प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
३२७ पातालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिगं प्रत्यभिज्ञान हेतुर्ग्रहण मावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्यानालीढगुदपयित्वस्य ।।१७॥ निदिष्टं संस्थानं यस्य सः ठीक तं, (अलिङ्गग्रहणकी निक्ति आत्मभ्याति टीका) ||१७२।। मलिङ्गसे अर्थात् स्वभाव से प्रात्माका ग्रहण होनेसे ग्रामा प्रत्यज्ञाता होता है" यह ज्ञात होता है। १०-- दूसरों के द्वारा लिङ्गसे (साधनसे) ही प्रात्माका ग्रहण नहीं है, अतः "प्रात्मा अनु. मसमान हो ऐसा नहीं है मह विदित होता है । ११-- लिङ्ग (सावन) से ही किसीके ग्रहणमें. प्रात्मा प्रायें ऐसा नहीं है अतः "अात्मा अनुमाता मात्र ही नहीं है। यह विदित होता है । १२- उपयोगरूप सिङ्गसे ज्ञेय अर्थक! पालम्ब नरूप महाग पास्या नहीं है, अतः बाह्य पर्थ के पालम्बन वाला ज्ञान होने के प्रभावको जानकारी होती है । १३- उपयोगरूप लिङ्ग कहीं . चौहर से नहीं हरा जोता, अत: "आत्माका अनाहार्य ज्ञान माना ज्ञात होता है । १४-उपयोगरूप तिङया दुसरेके द्वारा हरण नहीं होता अतः प्रात्माका अहाथ ज्ञानपना ज्ञात होता है । १५अमोगरूप लिङ्ग में ग्रहण (सूर्यग्रहणकी तरह) अर्थात् उपराग नहीं होता, अत: प्रात्माके गद्ध उपयोग स्वभावको जानकारी होती है। १६- उपयोगरूप लिङ्गके द्वारा ग्रहण अर्थात् मौदगलिक कोका ग्रहण नहीं होता, अतः "मात्मा द्रव्यकर्मसे विविक्त है" यह जाना जाता है। १७-- इन्द्रियरूप लिङ्गोंके द्वारा ग्रहग अर्थात् विषयोंका उपभोग नहीं होता, अतः प्रात्मा विषयोंका उपभोक्ता नहीं है" यह ज्ञात होता हैं । १८ - अात्मामें स्त्री पुरुष नपुंसक इन लिङ्गोंका ग्रहण नहीं है, अतः "प्रात्माके स्त्रोपना पुरुषपना व नपुसकपना नहीं है" यह जात होता है । १६- अात्मामें धर्ममुद्रारूप लिङ्गोंका ग्रहण नहीं है, अत: प्रात्माके बाह्य मुख्य मुनिलिङ्गका अभाव है यह जाना जाता है । २० - लिङ्ग अर्थात् गुणका ग्रहण याने अव बीय आत्माके नहीं है, अतः प्रात्मा गुणविशेषसे अनालिङ्गित है" यह ज्ञात होता है । - लिङ्ग अर्थात् पर्यायका ग्रहण ग्रात्माके नहीं है, अतः आत्मा पर्यायविशेषसे अनालिङ्गित यह शात होता है । २२- लिङ्ग अर्थात् प्रत्यभिजान कारणाभुत ग्रहण प्रात्माके नहीं है, प्रतः द्रव्य से अनालिङ्गि शुद्ध (केवल) पर्यायपनेका ज्ञान होता है । २३-- प्रात्मा स्वतःसिद्ध नादि अनंत अहेतुक चेतनागुणमय है ।
सिद्धान्त-~-(१) आत्मा स्वभावसे सत् है । (२) प्रात्म। परभावसे असत् है 1
दृष्टि-१- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय (२६) ।
प्रयोग--- अात्मसिद्धिके लिये परसे विविक्त स्वभावमय अपनेको ज्ञानमें लेना ।।१७२॥
=
S
R
-
Re