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सहलानन्दशास्त्रमालायां परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेष स्परक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरत्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपोतरक्तस्वरुपरक्त. स्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाबन्धो भवति ।।१७।। पुनर् तत् सम्बन्ध । मूलधातु-...मुह बचिरये, रंजु रागे प्र विध् अप्रीती। उभयपदविवरण--उवओगमओ उपयोगमय: जीवो जीव:-प्रथमा एक० । मुज्झदि मुह्यति रज्जेदि रज्यति पदुस्सेदि प्रद्वेष्टिा-वर्तमान अन्य। पुरुष एकवचन क्रिया । 'पप्पा प्राप्य-सम्बन्धार्थप्रक्रिया कृदन्त अव्यय । विविधे विविधान् विसये विषयानद्वि बहन । जो यः संबंधो सम्बन्ध:प्रथमा एक ति:-तुतीया बट | हिवा-अव्यय । निरुक्तिविशेषेण धानं विधा विविधा विधा येषां ते विविधाः तान डुधाञ वारणपोषणयोः उपयोगेन निर्वृत्त: उपयोगमयः ।।१७।। योगमय है उसमें जो प्रात्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थीको प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और ललाईके द्वारा उपरक्त स्वभाववाले स्फटिक मणि की तरह-..-पर जिनका निमिस है ऐसे मोह, राग और द्वेषके द्वारा उपरक्त आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं एक ही है, तो भी मोह-राग-द्वेषादि भावकी द्वितीयता होनेसे बंधरूप होता है ।
प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व माथामें नमूर्त होनेपर भी प्रात्माका बन्ध किस प्रकार होता है वह सिद्धान्त स्थापित किया था। अब इस गाथामें भावबन्धका स्वरूप बताया गया
तथ्यप्रकाश - (१) यह अात्मा सामान्यविशेषप्रतिभासात्मक होनेसे उपयोगमय है।। (२) उपयोगमय होनेसे यह अनादिकर्मबन्धनबद्ध आत्मा नाना शेय विषयोंको पाकर मोह साग द्वेषसे परिणत हो जाता है । (३) मोह राग द्वेषसे उपरक्त होनेसे स्वयं एक होनेपर भी स्वभावविरुद्ध भावका इस प्रातमा बन्ध होना भावबन्ध है। (४) हरित पीत आदि उपाधि के संयोगसे स्फटिक मणि भी स्वयं एक है तो भी छायाविभावका वहाँ बन्ध है ।
सिद्धान्त-(१) अपने विकारपरिणमनका बन्धन भावबन्ध है। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७)
प्रयोग----भावबन्धकी विपत्तिसे हटनेके लिये अविकार चित्स्वभावमें आपा अनुभवना ॥१७५
अब भावबंधकी युक्ति और द्रव्यबंधका स्वरूप बतलाते हैं- [जीवः जीव [येत भावेन] जिस भावसे [विषये प्रागतं] इन्द्रियविषयमें आये हुए पदार्थको [पश्यति जानाति] देखता है, जानता है, [तेन एवं] उसीसे [रज्यति] उपस्त होता है; [पुनः] और उसीके निमित्तसे [कर्म बध्यते] कर्म बंधता है; [इति] ऐसा [उपदेशः] उपदेश है ।