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- प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
३१६ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्तृत्वाभावमवधारयति---
कम्मत्तणपाश्रोग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१६॥
कर्मत्वयोग्य पुद्गल, जीवपरिणामका निमित्त पाकर ।
कर्मरूप परिणमते, जीव उन्हें परिरणमाता नहीं ॥१६६॥ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणति प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीवेन परिणमिताः ॥१६६।।
। यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ जीवपरिणाममात्र बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिण मयितार.
नामसंज्ञ-कम्मत्तणपाओग्ग खंध जीव परिणइ कम्मभाव ण हि त जीव परिणमिद । धातुसंज्ञ-प अप्प अर्पणे, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक--कर्मत्वप्रायोग्य स्कन्ध जीव परिणति कर्मभाव न हि तत् जीव पाकर कुछ पद्गलोंका क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरमें अवस्थान देखकर निमित्तपरम्परामें प्रात्माके योग उपयोगका स्वातन्त्र्य न देखकर उन स्कन्धोंका जीवको लाने वाला कहना कोरा उपचार है।
सिद्धान्त--(१) अात्मा पुद्गलपिण्डोंका लाने वाला नहीं है ।
दृष्टि-१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। र प्रयोग-आत्मा द्वारा पुद्गलपिण्डोंके लानेका प्रश्न तो दूर ही रहो, यह आत्मा समस्त पुद्गलोंसे अत्यन्त भिन्न मात्र अपने चैतन्यस्वरूपास्तित्व वाला है ऐसा जानकर समस्त परपदार्थविषयक विकल्पको तजकर अपने विशुद्ध स्वरूप में उपयुक्त होकर परम विश्राम पाना ॥१६॥
अब आत्मा पुद्गलपिण्डोंको कर्मरूप नहीं करता, यह निश्चित करने हैं--[कर्मत्व. प्रायोग्याः स्कंधाः] कर्मत्वके योग्य स्कंध [जीवस्य परिरगति प्राप्य] जीवकी परिणतिको प्राप्त करके [कर्मभावं गच्छन्ति] कर्मभावको प्राप्त होते हैं; [न हि ते जीवेन परिणमिताः] निश्चयतः वे जीवके द्वारा परिणमाये गये नहीं हैं ।
तात्पर्य-जीवपरिणामका निमित्तमात्र पाकर कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूप परिणमते
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टीकार्थ-कर्मरूप परिणमित होने की शक्ति वाले पुद्गल स्कंध, तुल्य क्षेत्रावगाहो जीवके परिणाममात्र बहिरंग साधनका प्राश्रय लेकर, जीवके परिणमयिता हुए बिना ही स्वयमेव कर्मभावसे परिणमित होते है । इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोंको कर्मरूप करने वाला प्रात्मा नहीं है।
। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि आत्मा पुद्गलपिण्डोंका लाने वाला भी नहीं है । अब इस गाथामें बता । गया है कि प्रात्मा पुद्गलपिण्डोंके कर्मपनेका भी
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