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सहजानन्दशास्त्रमालायां
मन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमन शक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥ १६६ ॥
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परिणमित । मूलधातु-- प्र आप्लू व्याप्तौ गम्लृ गतौ । उभयपद विवरण- कम्मत्तणपाओग्गा कर्मत्वप्रायोग्याः खंधा स्कन्धा: - प्रथमा बहुवचन । जीवस्स जीवस्य षष्ठी एक० । परिणइं परिणति द्वि० एक० । पप्पा प्राप्य - असमाप्तिकी क्रिया कृदन्त । गच्छति गच्छन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कम्मभावं कर्मभाव - द्वितीया एकवचन । ण न हि-अव्यय । ते प्र० बहु० । जीवेण जीवेन-तृतीया एक० । परिणमिदा परिणमिता:- प्रथमा बहुवचन कृदंत क्रिया । निरुक्ति--क्रियते यत्तत्कर्म । समास - कर्मत्वस्य प्रायोग्याः कर्मत्वप्रायोग्याः, विग्रहः - कर्मणः भावः कर्मत्वं, कर्मणः भावः कर्मभावः तं कर्मभावं ||१६||
करने वाला नहीं है ।
तथ्य प्रकाश
( १ ) समान क्षेत्र में अवगाही जीवके विभाव परिणामको निमित्तमात्र पाकर कार्माणवर्गरणायें स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाते हैं । ( २ ) वे कार्मारणवर्गरणायें अपनी परिणति से ही कर्मरूप परिणमती हैं वहाँ उसरूप जीव रंच भी परिणममान नहीं है । (३) जीव कार्माण पिण्डों को कर्मरूप नहीं परिणमाता और न कामणपिण्डोके परिलमन में साथ जुटता है । ( ४ ) आत्मा पुद्गलपिण्डोंके कर्मपनेका कर्ता नहीं है । (५) प्रत्येक पदार्थोंका परिणमन अपने अपने प्रदेशों में अपनी अपनी परिणति से होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) कार्मारण परद्रव्यकी कर्मत्व परिणतिका कर्ता श्रात्मा नहीं है । दृष्टि - १ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (२६, ४६ प्र ) । प्रयोग - कर्म आदि समस्त परद्रव्यसे निराले अपने प्रापके श्रात्मामें ज्ञानवृत्तिका ही सहज कर्तृत्व निरखना ॥ १६६ ॥
अब आत्मा कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका भी कर्ता नहीं यह निश्चित करते हैं - [ कर्मत्वगताः ] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे वे [पुद्गलकायाः] पुद्गल पिंड [ देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ] देहान्तररूप परिवर्तनको प्राप्त करके [ पुनः श्रपि ] पुनः पुनः [ जीवस्य ] जीव के [ देहाः ] शरीर [संजायन्ते ] बनते हैं ।
तात्पर्य - शरीरोंका कर्ता भी पुद्गल ही है, जीव नहीं ।
टोकार्थ -- जिस जोवके परिणामको निमित्तमात्र करके जो जो ये पुद्गल पिंड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे वे पुद्गलपिण्ड जीवके अनादिसंततिसे प्रवर्तमान देहान्तररूप परि वर्तनका आश्रय लेकर स्वयमेव शरीर बनते है । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीरका कर्ता आत्मा नहीं है ।
प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रात्मा पुद्गल पिण्डों का कर्ता