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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका
३१७ प्रयात्मनः पुद्गलपिण्डानेतृत्वाभावमवधारयति--
योगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सब्बदो लोगो। सुहुमेहिं बादरेहि य अप्पा प्रोग्गेहिं जोग्गेहिं ॥१६८॥
अवगाढ गाढ संभृत. पुद्गल कायोंसे लोक संपूरण ।
सूक्ष्म व चादरोंसे, योग्य अथवा अयोग्योंसे ॥१६॥ अवगाहगाहनिचितः पुद्गलकार्यः सर्वतो लोकः। यूक्ष्मदरश्चाप्रायोग्योन्यः ॥ १६८ ।।
यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतर्वादरपरिणतश्चानति सूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्वपरिणमनशक्तिः
नामसंज्ञ-ओगाहगाढनिचिद पुग्गलकाय सव्वदो लोग सुहुम वाद र अप्पाओग्ग' जोग्ग । धातुसंज्ञमाह स्थापनाग्रहणप्रवेशेषु । प्रातिपदिक...अब गाढ़गाढनिचित पुद्गलकाय सर्वत: लोक: सूक्ष्म वादर अप्राका बोय योग्य । भूलधातु--गुह प्रबेशने। उभयपदविवरण....ओगाढ़गाढणिविदो अवगादगाढनिन्चितः लोगो
कोष -प्रथमा एकवचन । पुग्गलकायेहि पुद्गलकार्यः सुहुमेहिं सूक्ष्मैः चादरेहि वादरैः अप्पाओग्गेहि अप्रा"चारणशक्तिके कारण हैं । (६) पृथ्वी ग्रादिमें जो पतलापन मोटापनको विशेषता है बह उन परमाणु पिण्डोंकी विशिष्ट अवगाहन शक्तिके कारण है । (७) निश्चयत: टोत्कीर्णज्ञायककपसे शुद्ध बुद्ध एकस्वभाव अात्मा है। (८) व्यवहारसे अनादिकर्मबन्धनवश शुद्धात्मस्वभाव को न पाते हुए जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु कायिकों में उत्पन्न होते हैं । (६) पृथ्वी आदि कायिकोंमें उत्पन्न होकर भी जीव अपने सुख दुःख ज्ञान विकल्प प्रादि परिणतियोंका ही उपादान कारण है, पृथ्वी प्रादि कायाकार परिणतिका नहीं 1 (१०) पृथ्वी कायाकार परिणति का उपादान कारण तो पुद्गलस्कन्ध ही है। (११) शरीर प्रादि किसी भी पुद्गलपिण्डका इती जीव नहीं है।
सिद्धान्त----जीव शरीर आदि पोद्गलिक पिण्डोंका कर्ता नहीं है। दृष्टि-प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)।
प्रयोग---प्रात्मा शरीरादि पुद्गलपिण्डका व अन्य भी किसी द्रव्यका कर्ता हो ही जा नहीं सकता, अत: कर्तृत्वका विकल्प छोड़कर अपने स्वद्रव्यमें उपयुक्त होकर सत्य विश्राम करना ॥ १.६७॥
अब प्रात्मा पुद्गलपिण्डका लाने वाला नहीं है, यह निश्चित करते हैं-- [लोकः लोक [सर्वतः] सर्वतः [सूक्ष्मः च वादरः] सूक्ष्म तथा वादर [अप्रायोग्यः योग्यः] एवं कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य [पुद्गलकार्यः] पुद्गल स्कंधोंके द्वारा [अत्रगाढमाढनिचितः] प्रवाहित होकर गाढ़ भरा हुअा है।