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सहजानन्दशास्त्रमालायां
विरोधेन सद्भावात् स्निग्धो वा रूक्षो वा स्यात् । तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपा विप्रदेशादित्वानुभूतिः । अधव स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम् ॥१६३॥ च सयं स्वयं बा-अव्यय । दुपदेशादितं द्विवदेशादित्वं-द्वितीया एकवचन । अादि अनुभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन विया । निरुक्ति-- शपन शब्दः, यो यः स शन्दः, प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्याय । प्रसपसामर्थेन अण्यते शब्यते इति अगु: अण सध्दे। समास–ने प्रदेशः (एकेनाधिकः प्रदेश:) यस्य । अप्रदेशः, न शब्द: इति अशब्दः ।।१६६।६।। का असंभव होने अशब्द है। चूंकि वह परमाणु चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वोंके अविरोधपूर्वक सद्भाबके कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इस कारण उसके पिण्डः पर्याय परिणतिरूप द्धिप्रदेशादित्वको अनुभूति होती है। अब इस प्रकार स्निग्धरूक्षत्व पिण्ड, पनेका कारण हुआ।
प्रसंग विवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें आत्मामें परद्रव्यपनेका प्रभाव व परद्रव्य के कत स्वका अभाव बनाया गया था। अब इस माथामें यह बतलाया गया है कि परमाणुद्रव्योंकी पिण्डपर्यायपरिणति कसे होती है।
तथ्यप्रकाश----(१) परमाणु एकप्रदेशी होता है । (२) परमाणु शब्दरहित है, क्योंकि । शब्दकी व्यक्ति स्कन्धमें ही हो सकती है, परमाणु में नहीं । (३) परमाणुवोंमें चार स्पर्श, पाँच रस, दो गन्ध व पान रूप अविरोधरूपसे रहते हैं, सो स्निग्धत्व व रूक्षत्व तो परमाणुमें होता ही है । (४) परमारगुमें होने वाले स्निग्धत्त्व व रूक्षत्व गुणके ही कारण परमाणुवोंको पिण्ड पर्यायरूप परिणति होती है, जैसे कि अशुद्ध जीवके राग द्वेष के कारण कर्मबन्ध होकर नरना रकादिक पर्याय होतो है । (५) परमारसुवोंकी पिण्डपर्याय रूप परिगति होनेसे द्विप्रदेशीसे लेकर अनन्तप्रदेशी तकके स्कन्ध हो जाते हैं। (६) परमाणुवोंके पिण्डपना होनेका कारण परमाणुवों का स्निग्धपना व रूक्षपना है । (७) पिण्ड परिणमनविधिसे हो इन शरीर वचन मन आदि स्कन्धोंकी रचना बनी हैं, इनका मैं कर्ता आदि नहीं हूं।
सिद्धान्त ---- (५) शरीर, वचन, मन पौद्गलिक हैं । (२) पोद्गलिक स्कन्धोंका कर्ता कर्म करण आदि कारकपना पुद्गलोंमें ही है ।
दृष्टि–१ उपादान दृष्टि (४६ब)। २- कारककारकिभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहार
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- प्रयोग--पौद्गलिक पिण्डोंका कर्तृत्व प्रादि पुगलोंमें ही है ऐसा निरखकर उनका ।। प्रकर्तृत्व अपनेमें निश्चित कर उनका विकल्प छोड़ना और अपनेमें अपने को ज्ञानमात्र निहार कर परम विश्राम पाना ॥१६३॥
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