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सहजानन्दशास्त्रमालायां स्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतयानुत्पन्न मलीनत्वाच्च संभूतिसंहारधोव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति । यथैव च य एव हि पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितंकवास्तुतयातदुभयात्मक इति । तथैव य एव हि पूर्वपरिणामोच्छेदात्मक: प्रवाहसीमान्तः स एव हि तदुतरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्युतिसुत्रित करवाहत्यातदुभयात्मक इति एवमस्य स्वभावत एव विलक्षणायां परिणामपद्धती दुर्ललितस्य स्व. भावानतिक्रमाविलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम् मुक्ताफलदामवत् । यथैव हि परिगृहीतद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूचकासत्सु मुक्ताफलेप्नुत्तरोत्तरेषु धामस्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुम्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्थावस्थानात्वलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति, तथैव हि परिगृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेवपि स्वावसरेपूच्चकासत्सु परिणामेषत्तरोत्तरेष्व दसरे पुत्तरोत्तरपरिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरि. णामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहयावस्थानात्त्रलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति ।। ६६ 11 सत्अवद्विदं सत्अवस्थित दव्वं द्रव्यं परिणामो परिणामः सहाको स्वभावः टिदिसंभवणाससंबद्धो स्थितिसंभवनाशसंबद्ध:-प्रथमा एकवचन । सहाचे स्वभावे-सप्तमी एक० । दब्बरस द्रव्यस्य-षष्ठी एकः । अत्थे अर्थेषु-सप्तमी बहु० । सो सः-३० एक- । निरुक्ति ...अव समन्तात् स्थितं इति अवस्थितं. परिणमनं परिणामः, अर्यते गम्यते ज्ञायते यः सः अर्थः, सं भवनं संभवः 1 समास-स्थितिः संभवः नाशश्चेति स्थितिसंभवनाशा:तः संबद्धः इति स्थितिसंभवनाशसंबद्धः ।।६६|| वही परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एकप्रवाहत्व से अनुभयस्वरूप है । इस प्रकार स्वभावसे ही त्रिलक्षण परिणामोंको परम्परामें प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका अतिक्रम नहीं करनेसे सत्त्वको मोतियोंके हारकी तरह विलक्षण ही अनुमोदित करना चाहिये । जैसे- लम्बाई ग्रहण को है जिसने ऐसे लटकते हुये मोतियोंके हारमें, अपने अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियोंमें, भागे आगेके स्थानोंमें आगे पागेके मोतियोंके प्रगट होनेसे पहले-पहलेके मोतियों के प्रगट नहीं होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे विलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । इसी प्रकार नित्यवृत्ति ग्रहण की है जिसने ऐसे रचित होते हुये द्रव्य में, अपने अपने अवसरोंमें प्रकट होते हुये समस्त परिणामोंमें उत्तरोत्तर अबसरोंपर उत्तरोत्तर परिणाम प्रगट होनेसे और पहले पहलेके परिणाम नहीं प्रगट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । :: प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्योंके द्वारा द्रव्यान्तरका प्रारंभ नहीं होता और सत्ता द्रव्यसे पृथक् नहीं है। अब इस गाथामें बताया गया है कि
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