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प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका
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दुर्ललितस्तत्तावदाकाशं शेषाण्यशेषाणि द्रव्याणि चेत्यमीषां समवाय आत्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य म लोकः यत्र यावति पुनराकाशे जीवपुद्गलयोर्गतिस्थिती न संभवतो धर्माधर्मौनावस्थित कालो दुर्ललितस्तावत्केवलमाकाशमात्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य सोऽलोकः ।।१२।।
"यद लोक तत् सर्वकाल तु । मूलधातु-- निबन्ध बन्धने, वृतु श्रर्त । उपपद विवरण- पोग्गल जीवणबढी पुद्गलजीवनिबद्धः धम्मात्रम्मात्थिकामकालड्दो धर्माधर्मास्तिकायकालादधः- प्रथमा एकवचन | आगासे आकाशे सप्तमी एकवचन । जो धः लोगो लोकः सो सः प्रथमा एकवचन । सव्वकाले सर्वकाले
एकवचन | दु तु अव्यय । बट्टदि वर्तते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति पूर्वते गलयते इति पुद्गलः, जीवतीति जीवः, धरति गती जीवपुद्गलान् इति धर्मः (द्रव्यम्) कलयति सर्वा नीति कालः आकाशन्ते सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स आकाश: लोकान्ते सर्वाणि क्रव्याणि यत्र स लोक, सरतीति सर्वः । सम्पास --- पुद्गलाः जीवाश्चेति पुद्गलजीवाः तैः निवद्धः पुद्गलजीवनिबद्धः वदन as an aर्माधम तौ अस्तिकाय चेति धर्माधर्मास्तिवाय धर्माधर्मास्तिकाय च कालदचेति धर्माधर्मास्तिकालाः तैः आढ्यः इति धर्माधर्मास्तिकाय कालाढयः ।। १२० ।।
है । ३-चेतनालक्षण जीव है । ४- प्रचेतनालक्षरण अजीव है । ५- गतिस्थिति धर्मात्मक जीव मुद्गलको गति में निमित्तभूत द्रव्य धर्मद्रव्य है । ६- गतिस्थितिधर्मात्मक जीव पुगलकी स्थिति में निमित्तभूत द्रव्य अधर्मद्रव्य है । 3- सर्वद्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत पदार्थ काल ग्रन्थ है । ६- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल ये द्रव्य जितने शाकाशमें अवस्थित हों वह लोक है । ६- जितने आकाशमें जीव पुद्गलको गतिस्थिति संभव नहीं, धर्म, अधर्म, कालद्रव्य प्रवस्थित नहीं उतना केवल आकाश अलोक है ।
सिद्धान्त - १ - परके संयोग वियोगसे एक ही द्रव्य दो रूप विदित होता है । दृष्टि - १ - पर संपर्क सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय (२६) ।
प्रयोग -- ग्राकाशके असोम परिमाण व लोकके विशाल परिमाणको जानकर बिन्दुमात्र मतुपात से भी कम परिचित क्षेत्रका व्यामोह न कर आत्मप्रदेशों में आत्मस्वरूपका भवमनुभवना ।। १२८ ॥
अब 'क्रिया' रूप और 'भाव' रूप द्रव्यके भावोंका भेद निश्चित करते हैं--- [पुद्गलजोवात्मकस्य लोकस्r] पुद्गल जीवात्मक लोकके [ परिणामात्] परिणमनसे, गौर [ संघा आता वा मेदात्] मिलने और पृथक् होनेसे [उत्पाद स्थितिभंगा: उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय
[जायन्ते ] होते हैं ।
तात्पर्य - पुद्गल व जीव ये दो प्रकारके द्रव्य क्रियावान व भाववान है, शेष के द्रव्य