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प्रवचनमार-सरतदक्षा ही टीका
शस्य प्रवेश लक्षणं सूत्रयति-
यागासमणिविद्य यागासपदेसणाया भणिदं । सव्वेसिं च गां सक्कदि तं देदुमवगा ||१४|| जितना नभ अणु रोके, उतना नमका प्रदेश इक होता ।
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उस प्रदेशमें शक्ती, सब अणु अवगाहनेकी है ॥ १४० ॥ निविष्टाशप्रदेश संज्ञया भणितम् । सर्वेषां चाणतां शांति तदातुमवकाशम् ।। १४० ।। प्राकाशस्यैकारगुव्याप्योऽशः विलाकाशपदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपञ्चद्रव्यपदेशानां परमसदस्य परिगतानन्त परमास्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः । प्रस्ति चाविभागद्रपऽप्यं
नाम
आगास अगुणिविक आगारामा भणिद सव्य व अशुत अवगास । धातुसंज्ञ - सक सामर्थ्य । प्रातिपदिक आकाश अनिविष्ट आकाशप्रदेशसंज्ञा भणित सर्वच असु तत् अवकाश । सता समाप्त नहीं होती, क्योंकि परमाणुका कभी एक समय में ७ या १४ राजू गमन बने तो वह परमाणुको विशिष्ट गतिका प्रताप है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) कालद्रव्य नित्य है । ( २ ) समय नामक पर्याय उत्पन्न प्रध्वंसी है । दृष्टि - १- उत्पादव्यय गौणसत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२२) । २नयनामक पर्यायार्थिकन (३४) ।
शुद्ध सूक्ष्म
प्रयोग-कालद्रव्यके अंविभागी समय पर्यायकी तरह अपने विभागी परिणमनका fern कर गुप्त होकर अपने विभागी चित्स्वरूपमात्र स्वद्रव्यको निहारना ॥१३६॥
अब प्रकाशके प्रदेशका लक्षरण सूचित करते हैं - [ अणुनिविष्टं श्राक्राशं] एक पर. माके द्वारा घेरा गया श्राकाश [ श्राकाशप्रदेशसंज्ञया ] 'श्राकाशप्रदेश' के नामसे [भणितम् ] कहा गया है। [च] और [ तत् ] वह [सर्वेषां अस्सूनां ] समस्त परमारोंको [ अवकाशं " शक्नोति ] अवकाश देने के लिये समर्थ है।
तात्पर्य - एक परमाणु जितने श्राकाशपर ठहरता है वह एक प्रदेश है, यह प्रदेश स्थान नमें समर्थ है ।
टीकार्थ -- आकाशका एक परमाणुसे व्याप्य ग्रंश आकाशप्रदेश है; और वह एक देश भी शेष पाँच द्रथ्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मतारूपसे परिण प्रनन्त परमाyeh hain अवकाश देने में समर्थ है। अखंड एक द्रव्यपना होनेपर भी उसमें प्रदेशरूप अकल्पना है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमारोंको अवकाश देना नहीं बन सकेगा । यदि 'प्रकाशके अंश नहीं होवे ऐसी किसीको मान्यता हो तो श्राकाशमें दो उंगलियां फैलाकर