________________
२८६
सहजानन्दशास्त्रमालायां निबद्धत्वापोद्गलिककर्मफलमुपभुनानः पुनरप्यन्यः पौद्गलिककर्मभिबंध्यते । ततः पोद्गलिक कर्मकार्यत्वात्पौद्गलिककर्मकारणत्वाच्च पौद्गलिका एवं प्रागा निश्चीयन्ते ।।१४८।। बन्ध बन्धने । उभयपद विवरण- जीवो जीवः पाणणिबद्धो प्राणानिवद्धः बद्धी बद्धः-थमा एकवचन ।। मोहादिरहिं माहादिकः कम्मेहि कर्मभिः अपोहि अन्य:-तृतीया बहु० । उवभुज उप जान:--प्रथमा एक कदन्त । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन । बज्मदि बध्यते वर्तमान अन्य पार एकवचन भावकम प्रक्रियायां । निरुक्ति--फलनं फल्यते इति वा फलम् । समास- प्राणः निवद्धः प्राथनिवद्भः, कर्मणः फले इति कर्मफलम् ।। १४८ ॥ ही जीव प्राणसंयुक्त होता है, कर्मबन्धरहित जीव प्राणसंयुक्त नहीं होता। (५) प्राणी चित्स्वभावावलम्बन समुत्पन्न विशुद्ध प्रानन्दको न पाता हुआ कर्मफलको भोगता है ।
सिद्धान्त-..-- (१) प्राण पौद्गलिक हैं । दृष्टि-१- विक्षितकदेश शुद्ध निश्चयनय (४८) ।
प्रयोग--पौद्गलिक प्रारणोंका लगाव न रखकर सहज चित्स्वभावमय प्रात्मसत्त्वहेतु भूत चैतन्यप्राणमय अपनेको अनुभवना ।।१४८।।
अब प्राणोंके पौद्गलिक कर्मका कारणपना प्रगट करते हैं--- [यदि] यदि जीव जीव [मोहद्वेषाभ्यां] मोह और द्वेषसे [जीवयोः] स्व तथा पर जीवोंके [प्रारणाबाधं करोति] प्राणोंका घात करता है [हि] तो अवश्य ही [ज्ञानावरगादिकर्मभिः सः बंधः] ज्ञानावरणा दिक काँसे प्रकृति स्थिति आदि रूप बँध [भवति ] होता है।
तात्पर्य–मोह रागद्वेषवश स्व पर प्रारणोंका घात करने वाला जीव अवश्य ही कमोसे बँधता है।
टोकार्थ----प्राणोंसे तो जीव कर्मफलको भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेष को प्राप्त होता है; और उनसे स्वजीव तथा परजोव के प्राणोंका घात करता है । तर कदाचित् दूसरेके द्रव्य प्राणोंको बाधा पहुंचाकर और कदाचित् बाधा न पहुंचाकर, अपने भावप्राणोंको तो मलिनतासे अवश्य ही बाधा पहुंचाता हुमा जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंको बांधता है । इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपनेको प्राप्त होते हैं ।
प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियादि प्रारणोंकी पौद्गलिकता सिद्ध की गई थी। अब इस गाथामें प्राणोंका पौद्गलिक कर्मकारणपना प्रकट किया गया है ।
तथ्यप्रकाश--(१) जीब प्राणोंके द्वारा कर्मफलोंको भोगता है । (२) कर्मफलोंको भोगता हुअा जीव मोह रागद्वेषको प्राप्त होता है । (३) मोह रागद्वेष से यह प्राणी अपने व परजीवके प्राणोंका घात करता है । (४) कभी दूसरेके प्राणोंको बाधा पहुंचे अथवा न पहुंचे,. अपने प्राणोंका घात करता हुघा यह प्राणी ज्ञानादरणादिक कर्मोंसे बँध जाता है । (५) उक्त