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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ परद्रव्यसंयोगकारणविनाशमभ्यस्यति----
अनुहोवोगरहिदो सुहोवजुत्तो रण अण्णदवियम्हि । होज मज्झत्थोऽहं गाणप्पगमप्पगं झाए ॥ १५६ ॥
अशुभोपयोगविरहित, शुभोपयोगी न हो परार्थोंमें ।
मैं मध्यस्थ रहूं अरु, ज्ञानात्मक प्रापको घ्याऊँ ॥१५॥ अशुभोपयोगरहित: शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये । भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकामात्मकं ध्यायामि ।। १५६ ।।
यो हि नामायं परद्रव्यसंयोगकारणत्वेनोपयस्तोऽशुद्ध उपयोगः स खलु मन्दतीद्रोदय. दशाविश्रान्तपरद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्मादेव प्रवर्तते न पुनरन्यस्मात् । ततोऽहमेषसर्वस्मिन्नेव परद्रव्ये
नामसंज--- असुहोवओगरहिद सुहोवजुत्त ण अण्णदविय मज्भत्य णाणपग अप्पय । धातुसंज-हो सत्तायां, झा प्रातिपदिक-अशुभोपबोगरहित शुभोपयुक्त न अन्यद्रव्य मध्यस्थ ज्ञानात्मक आत्मक । मूलधातु... भू सत्तायां, व्य ध्याने' रह त्यागे भ्वादि। उभयपदविवरण- अाहोवओगरहिओ अशुभोपयोगउग्रताके प्राचरणमें प्रवृत्त हुग्रा उपयोग अशुभोपयोग है । ( ३ ) सहजात्मस्वरूप व उसके साधनों साधकों व सिद्धोंके अतिरिक्त अन्य जीवोंमें देवत्व ब गुरुत्वका श्रद्धान विपरीत मार्ग है। ( ४ ) अशुभोपयोगमें अशुभ उपरागका ग्रहण हैं। (५) अशुभ उपराम होनेका निमित्त कारण मोहनीयकर्मका उदयविशेष है । (६) प्रात्मस्वभाव विषयकषाय आदि विभावोंसे रहित शुद्ध चित्प्रकाश है उसके विरुद्ध है उक्त सर्वचेष्टायें, अत: ये सब विपरीत मार्ग हैं ।
सिद्धान्त-(१) अशुभोपयोगके परिणाम प्रोषाधिक व विकृत भाव हैं।
दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय, उपचरित अशुद्ध असद्भुत व्यवहार (२४, ७५)।
प्रयोग—अात्मरक्षाके लिये अत्यंत हेय अशुभोपयोगसे पूर्णतया हटकर शुभोपयोगमें रहबार शुद्धोपयोगके लाभके लिये पौरुष करना ।।१५।।
अब परद्रव्य के संयोगके कारणके विनाशका अभ्यास करते हैं—[अन्य द्रव्ये अन्य द्रव्यमें [मध्यस्थः] मध्यस्थ [भवन्] होता हुअा [अहम्] मैं [अशुभोपयोगरहितः] अशुभोपपयोगसे रहित हुअा, तथा [शुभोपयुक्तः न] शुभोपयुक्त न होता हुअा [ज्ञानात्मकम्] ज्ञानस्वरूप [आत्मकं] प्रात्माको [ध्यायामि ध्याता हूं ।
तात्पर्य----प्रशुद्धोपयोगसे रहित होकर ज्ञानस्वरूप प्रात्माको आराधनासे परद्रव्यसंयोग
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हटता है।
टोकार्थ---- जो यह १५६वीं मायामें परद्रव्यके संयोगके कारणरूप में कहा गया अशुद्धो.