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ॐ
प्रवचनसार-सप्तदनांगी टोका मध्यस्थों भवामि ! एवं भवंश्चाहं परद्रव्यानुवृतितन्त्रत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वाशुद्धोपयोगेन निम्तो भूत्वा के बलम्नद्रव्यानुवृत्ति परिग्रहात प्रसिद्धगद्धोपयोग उपयोगात्मनात्मन्येव नित्यं निचलमुपयुक्तस्तिष्ठामि । एपं मे परद्रव्यसंयोगका विनाशा यासः ॥१५६।। रहितः सहोवत भभोपयुक्तः ममत्यो मध्यस्थः अ-प्रथमा एकवचन । एन- अध्याय अभादवियाम्हि अन्यद्रव्ये-मरतमी एकचन । होज्ज भूत्वा-असमानिकी किया कृदन्त । णाणपगं ज्ञानात्मक अवगं . जाक द्वितीया एक वचन : माये व्यायामि-वनमान उन्लम चुप कवचन क्रिया । निरुक्ति- गोमन अभः, इति द्रोरति अदुव पर्यायान् इति द्रव्यं । समास-मभचामो उपयोगः अशुभोपनोगः तेन रहितः ॥ मध्ये तिष्ठति इति माथः, शुभे उपयुक्त नभोपयुक्त१५६।। प्रयोग है यह वास्तवमें मन्द तीव्र उदयदशामें रहने वाले परद्रव्यानुसार परिणसिके प्राचीन होनेसे ही प्रवर्तता है, अन्य कारण नही । इसलिये यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्य होऊ और इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रश्यानुसार परिणतिके प्राधीन न होने से शुभ अथवा प्रणभ-अशुद्धोपयोगसे मुक्त होकर, मात्र स्वद्रभ्यानुसार परिणतिको ग्रहण करने में प्रसिद्ध हुना है शुभोपयोग जिसको ऐसा यह मैं उपयोगस्वरूप निजस्वरूपके द्वारा प्रात्मामें हो सदा निश्चततया उपयुक्त रहता हूं। यह मेरा परद्रव्य के संयोगके कारणके विनाशका अभ्यास है।
प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाया में अमोपयोग के स्वरूपका प्ररूपण किया गया था। अब इस गाधामें परसंयोगके कारगाके विनाशका अभ्यास कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अशुभोपयोग व शुभोपयोग दोनोंको अशुद्धोपयोग कहते हैं । (२) मसुद्धोपयोग कर्मोदय के निमित्तसे एवं परद्रव्योंके अवलम्बनसे प्रकट होता है, अतः समस्त परद्रव्योंमें मध्यस्थ होनेपर अशुद्धोपयोगसे छुटकारा मिलेगा । (३) जब किसी परपरिणतिके साधीन यह प्रात्मा न होगा तो अशुद्धोपयोगसे मुक्त होकर केवल स्वद्रव्यमें मग्न रहेगा । MY) मात्र स्वद्रव्यमें मग्न होने को शुद्धोपयोग कहते हैं । (५) अशुद्धोपयोगसे छूटकर निज सहज
तन्यस्वरूपमें आत्मत्वको अनुभव ना, यह पर द्रव्य के संयोगके कारणका विनाश करने का प्रमोघ तात्र है। (६) परविषयक समस्त विकल्प छोड़कर स्वरसत: ज्ञानसे रचे ज्ञानात्मक निज परमात्मद्रव्यको ज्ञान ष्टि से निरखना शुद्ध उपयोग है।
सिद्धान्त--(१) उपाधिका अभाव होने पर शुहोपयोग प्रकट होता है ।
दृष्टि----- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्यायिकनय (२४अ)। EMA प्रयोग---शरीर प्रादि सब पदार्थोंमें राग द्वेष न कर, सहजानन्दमय ज्ञान स्वरूप निज
परमात्मद्रव्यमें उपयुक्त होना ।।१५६।।
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