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हजानन्दशास्त्रमालायां वात्यन्त विशुद्ध मुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्य आत्मनोऽत्यन्तविभक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतवः पुद्गलप्राणा एवमुच्छेत्तव्याः ।। १५१ ॥ आत्मकं तं-द्वितीया एकवचन । झादि ध्यायति रंजदि रज्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मे. हिं कर्मभि:-तृतीया बहुवचन । ण न किह कथं-अव्यय । पाणा प्राणा:-प्रथमा बहुवचन । अणुचरंति अनु. चरन्ति-वर्तमान अन्य० बहुवचन क्रिया । निरुक्ति-इन्द्रस्य संसारिण: आत्मनः लिङ्ग इन्द्रियम् । समासइन्द्रियादीनां विजयी इन्द्रियविजयी ।।१५१।। प्रात्माकी अत्यन्त विभक्तताकी सिद्धि करनेके लिये व्यवहारजीवत्वके हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार हटाने योग्य हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पौद्गलिक प्राणोंकी संततिको प्रवृत्ति का अन्तरङ्ग कारण बताया गया था। अब इस गाथामें पौद्गलिक प्राणोंकी संतति हटे उसका उपाय. भूत अन्तरङ्ग कारण ग्रहण कराया गया है।
— तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलप्राणसंततिकी प्रवृत्तिका अन्तरङ्ग कारण देहादिविषयक ममत्व है । (२) पुद्गलप्राणसंततिको निवृत्ति का अन्तरङ्ग कारण मोह राग द्वेषरूप उपराग का बिल्कुल हट जाना है। (३) देहादिविषयक उपरागका अभाव इन्द्रियविजयी आत्माके हो सकता है । (४) इन्द्रियविजय कषायविजय होनेपर ही संभव है। (५) कषायविजय प्रकषाय प्रात्मस्वभावके अवलम्बनसे होता है । (६) इन्द्रियविजय व कषायविजयकी प्रक्रियाका प्रारम्भ अतीन्द्रिय प्रात्मीय आनन्दातसे संतोष पानेके बलपर होता है । (७) सर्वक्लेशके कारणभूत पौद्गलप्राणोंके विनाशका उपाय कषायविजय व इन्द्रियविजय है ।
सिद्धान्त-१- विषयकषायविजयरूप चारित्रसे पौद्गलिकप्राणशून्य आत्माकी सहज परिणति प्रकट होती है । २- ज्ञानमात्र प्रात्मामें आत्मसर्वस्वताके मननसे इन्द्रियकषायविजय पूर्वक प्राणोपाधिरहित स्थिति होती है।
- दृष्टि-१- क्रियानय (१९३) । २- ज्ञाननय (१६४) ।
प्रयोग-प्राणसंयोगमूलक सर्व क्लेशोंसे छुटकारा पाने के लिये प्रविकार सहजानन्दमय सहजज्ञानस्वरूपकी आराधना करना ॥१५१।।
अब फिर भी, प्रात्माकी अत्यन्त विभक्तताकी सिद्धि के लिये, व्यवहारजीवत्वको हेतुभूत देव-मनुष्यादि गतिविशिष्ट पर्यायोंका स्वरूप अपने समीप जांचते हैं-[अस्तित्वनिश्चितस्य अर्थस्य हि] सहजस्वरूपके अस्तित्वसे निश्चित परमात्म पदार्थका [अर्थान्तरे संभूतः] पुद्गल के संयोगमें उत्पन्न हुआ [अर्थः] भाव [पर्यायः] पर्याय है [सः] वह [संस्थानादिन
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