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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
शुभपयोगस्वरूपं प्ररूपयति-
जो जागादि जिगिंदे पेच्छदि सिद्ध तव गंगारे | जीवे साकंपो वोगो सो सुहो तस्स ॥ १५७॥ परमेश्वर अहंतों, सिद्धों व साधुवोंकी भक्तीमें ।
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जीवदया में तत्पर है शुभ उपयोग वह उसका ॥ १५७॥
यो जानाति जिनेन्द्रान पयति सिद्धांस्तथैवानागाराद् । जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥ १५७ ॥ विशिष्टक्षयोपशमदशा विश्रान्तदर्शनवारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहोतशोभ
नामसंज्ञ --ज जिणिद सिद्ध तह एवं अणगार जीव सानुकंप उवओोग त सुहृ त । धातुसंज्ञ जाण अवबोधते, दरिस दर्शनाय । प्रातिपदिकयत् जिनेन्द्र सिद्ध तथा एवं अनगार जीव सानुकम्प उपयोग तत् शुभः तत् । मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, हरि प्रेक्षणे। उभयपदविवरण -- जो यः सानुकंपो सानुकम्पः ushyati दो प्रकारका है- शुभोपयोग व अशुभोपयोग । (३) शुभोपयोग में विशुद्धि भाव रूप उपरांग है, अतः शुभोपयोग पुण्यकर्मके बन्धनका कारण है । ( ४ ) अशुभोपयोग में सक्लेश भावरूप उपराग है, अतः शुभोपयोग पापकर्मके बन्धनका कारण है । ( ५ ) शुद्धोपयोग में विशुद्धिरूप व संक्लेशरूप दोनों ही अशुद्ध उपरागका प्रभाव है, अतः शुद्धोपयोग परद्रव्यके संयोगका याने बन्धका कारण नहीं है । ( ६ ) अविकार निजपरमात्मद्रव्यको भावनासे शुभा - शुभ उपयोगका प्रभाव होकर शुद्धोपयोग प्रकट होता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) पुण्यबन्धका निमित्तकारण विशुद्धोपरागयुक्त उपयोग है । (२) पापअन्यका निमित्त कारण संक्लेशोपरागयुक्त उपयोग है ।
दृष्टि - १, २- निमित्तदृष्टि, निमित्तपरम्परादृष्टि ( ५३, ५३ )
प्रयोग-संसारविपदा के निमित्तभूत कर्मविपाकसे छुटकारा पानेके लिये मूल उपायभूत निज सहज परमात्मतत्त्वको प्रभेदोपासनाका पुरुषार्थ होने देना ।। १५६॥
• शुभपयोग स्वरूपका प्ररूपण करते हैं - [ यः ] जो [जिनेन्द्रान् ] जिनेन्द्रोंको [जानाति ] जानता है, [ सिद्धान् तथैव अनागारान् ] सिद्धों तथा अनगारोंको [ पश्यति ] देखता है, [जीवेषु सानुकम्पः ] और जीवोंके प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य ] उसके [स: ] वह [ शुभः उपयोगः] शुभ उपयोग है ।
तात्पर्य -- पूज्य आत्मावोंकी भक्ति तथा जीवदयाका भाव होना शुभोपयोग है । टीकार्थ - विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय परमभट्टारक रूप पुद्गलोंके अनुसार परिरगति में लगा होनेसे शुभ उपरागका ग्रहण करनेसे,