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ॐ
प्रवचनसार--सप्तदशांगी टीका
२८६ म पुद्गलप्रारणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राहयति----
। जो इंदियादिविजई भवीय उवयोगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो रण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥१५१॥ जो इन्द्रियादि विजयो, हो निज उपयोगमात्रको ध्याता ।
नहि कमरक्त होता, उसको फिर प्रारण नहिं लगते ।।१५१॥ य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मवं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।।१५१३॥ - पुद्गल प्रासंततिनि वृत्तेरन्तरको हेहि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्थाभावः । स तु समस्लेन्द्रियादिपर पानुवत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तीपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्यस्फटिकमरणेरि
नामसंज--- इंदियादिविजय उवओग अपग कम्म त ण किह त पाण | धातुसंज-उमा ध्याने, रज राग, जय जये । प्रातिपदिक ... यत् इन्द्रियादिविजयिन् उपयोग आत्मक कर्मन् तत् न कथं तत् प्राण । । सधातु ध्य ध्याने, रंज रागे, जि जये, इदि परमश्व। उभयपदविवरण-जो यः इंदियादिविजयी र लियादिविजयी सो स:--प्रथमा एवावचन । भवीय भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । उवओगं उपयोग अप्पगं है। २- प्रायुप्राण व श्वासोच्छ्वासप्राण योग्य जीवके सान्निध्यमें कर्मवर्गणा व आहारवर्गणा का परिणमन होनेसे पौद्गलिक हैं । wi दृष्टिः-१- निमित्त दृष्टि (५३)। २-- उपादानदृष्टि (४६ ब) ।
। प्रयोग---समस्त पौद्गलिक प्राणोंको भिन्न दुःखहेतु जानकर उनसे ममत्व हटाना व सहमसिद्ध चैतन्य प्राण में अपना उपयोग लगाना ।।१५०।।
सब पोद्गलिक प्रारणोंको संनतिकी निवृत्तिका अन्तरङ्ग हेतु ग्रहण कराते हैं- [यः] को इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादिको जीतने वाला होकर [उपयोगं आत्मकं] उपयोग मान पातमाको ध्यायति ध्याता है. सिः वह कर्मभिः] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता ति] उसे [प्रारणा: प्राण [कथं] कैसे [अनुचरति] लग सकते हैं ?
- तात्पर्य-जो विषयोंको जीतकर ज्ञान दर्शनस्वरूप स्वका ध्यान करता है, प्राण उसका पोछा न करेंगे।
टीकार्थ---बास्तवमें पौगलिक प्राणोंकी संततिको निवृत्तिका अंतरङ्ग हेतु पोद्गलिक म है कारण जिसका ऐसे उपरक्तपने का प्रभाव है और उस उपरक्तताका कारण (निमित्त) मिलिक कर्म है । और वह अभाव, समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्योंकी अनुवृत्तिका विजयी कार, प्राश्रयानुसार सारी परिचालिसे पृथक हुये स्फटिक मणिकी तरह अत्यन्त विशुद्ध उपजोगमात्र पकेले अात्मामें सुनिश्चलतया रहने वाले जीवके होता है । यहां यह तात्पर्य है कि