________________
२८४
सहजानंदशास्त्रमालायां अथ प्रारणानां निरुक्त्या जीवत्वहेतुत्वं पौद्गलिकत्वं च सूत्रयति----
पागोहिं चदहि जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं शिव्वत्ता ॥१४७॥
जीवित थे जीवेंगे, जीवते हैं जो चार प्रारगोंसे । .
बे जीव किन्तु प्रारण हि, निवृत्त पौद्गलिक द्रव्योंसे ॥१४७॥ प्राणश्चतुभिर्जीवति जीविष्यति यो हि जीवित: पूर्वम् । स जीवः प्राणा: पुन: पुद्गलद्रव्यनिर्वताः ॥१४॥
प्राणसामान्येन जीवति जीविष्यति जीवितवांश्च पूर्वमिति जोवः । एवमनादिसंतान. प्रवर्तमानतया त्रिसमयावस्थत्वात्प्राणसामान्यं जीवस्य जीवत्वहेतुरस्त्येव तथापि तन्न जीवस्य स्वभावत्व मवाप्नोति पुद्गलद्रव्यानिवृत्तत्वात् ॥१४७॥
नामसंज्ञ-पाण चतु ज हि जीविद पुब्ब त जीव पाण पुण पुग्गनदन्व णिवत्त । धातुसंज्ञ---जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक..... प्राण चतुर् यत् हि जीवित पूर्वम् तत् जीव प्राण पुनर् पुद्गलद्रव्य, निर्वत । मुलधातु-जीव प्राणधारणे । उभयपदविवरण-पागेहि प्रायः चहि चभिः पुमालदवेहि पुद्गलद्रव्यःतृतीया बहुवचन । जीबदि जीवति-वर्त० अन्य० एक० किया। जीविस्सदि जीविष्यति-भविष्यत् अन्य एक० क्रिया। जीविदो जीवित:-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । जो यः सो स; जोवो जीव: प्रथमा एक । हि पुच्वं पूर्व पुण पुन:-अव्यय । पाणा प्राणा:--प्रथमा बहु । णिवत्ता नियंत्ता:-प्रथमा बहुवचन । निर क्ति-पूर्वणं पूरयणं वा पूर्वम्, पुरति गलति इति पुद्गलः । समास-पुद्गलाश्च तानि द्रव्याणि चेति पुदगलानि च तानि द्रव्याणि चेति वा पुद्गलद्रव्याणि तः ॥१४॥ इस प्रकार अनादि संतानरूपसे प्रवर्तमान होनेसे संसार दशा त्रिकाल स्थायी होनेसे प्राण सामान्य जीवके जीवत्वका हेतु है ही, तथापि वह जीवका स्वभाव नहीं है, क्योंकि प्राण पू. गलद्रव्यसे रचित हैं।
प्रसंगविवरण-ग्रनन्तरपूर्व गाथामें व्यवहारजीवत्वके हेतुभूत प्राणोंका निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें उन प्रारणोंको निरुक्ति करके उन्हें पुद्गलद्रव्योंसे रचा गया बतलाया गया है।
तथ्यप्रकाश----(१) जो प्रारणसे जीता है, जीवेगा व जीवता था वह जीव है । (२) अनादिसंतानसे प्रवर्तमान रूपसे तीन समयोंमें रहनेसे प्रारणसामान्य जीवके जीवत्वका हेतु हैं हो । ( ३ ) यद्यपि प्रारण थे व हैं व होंगे, या प्राण ये व हैं, या प्राण थे, यह सब जीवके जीवत्वका लिङ्ग है तो भी प्राण जीवका स्वभाव नहीं है । (४) चूंकि प्राण पुद्गलद्रव्यसे रचा गया है, अतः प्राण जीवका स्वभाव नहीं है । (५) निश्चयतः जीवका अनादि अनन्त अहेतुक एक चैतन्यस्वरूप ही परमार्थ प्राण है ।
812