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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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रगनिमित्तमायाप्राणः । उदञ्चनन्यचनात्मको मरुदानपानप्राणः ।। १४६ ।। जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहुवचन । हाति भवन्ति-वर्तमान अन्य पुरुप बहुबचन क्रिया : पाणा प्राणाः तेप्रथमा बहुवचन । निरुक्ति-...इन्द्रस्य लिग इन्द्रिय, बलगं बलं, एति भवं इति अायु:, अणनं आन: । समास-कृष्ट: आन: प्राय: ।।१४६।।
तभ्यप्रकाश-(१) प्राण चार हैं----इन्द्रियप्राण, बलप्राण, प्राय प्राण व श्वासोच्छवास प्राणः । (२) उक्त चार प्रारा संसारो जीवोंके पाये जाते हैं, किन्तु अपर्याप्त अवस्या श्वासोनिवास प्राण बिना ३ प्राण पाये जाते हैं । (३) प्राणों के प्रभेद होनेसे प्रारण १० होते हैं-५ इन्द्रिय प्राण, ३ बलप्रारण, १ अायप्राण, १ श्वासोच्छनास प्राण । (४) इन प्राणों में ५ भावेन्द्रियोंको इन्द्रि यप्राण। कहा गया है । (५) मन, वचन, कायके अवलम्बन से प्रकट हुई जोवभक्तिको बलप्राण कहा गया है । (६) श्रायु कर्म के उदयको प्रायुप्राण कहा गया है । (७) श्वास के प्राने निकलनेको श्वासोच्छ्वास प्राण कहा गया है । (८) उक्त प्राणों में से किसीका वियोग होनेपर इन सभी प्राणोंका वियोग हो जाता है, किन्तु अनन्तर समयमें हो अन्य प्राणोंका
संयोग मिल जाता है । (६) रत्नत्रयके तेजसे इन प्राणोंका वियोग होनेपर फिर ये कभी नहीं - मिलते, एक शुद्ध चैतन्यप्रारणसे ही सदाके लिये अनन्त ज्ञानानन्दमय अवस्था रहती है ।
सिद्धान्त - (१) जीवका व्यवहार प्राणमय होना अशुद्धावस्था है। (२) निरुपाधि शुद्ध चतन्यप्राणविकासरूप होना जीवको शुद्धावस्था है । (३) जीन स्वयं सहज शुद्ध चैतन्य. प्राणमय है।
दृष्टि-- १- अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- शुद्ध निश्चय नय (४६) । ३- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
का प्रयोग-व्यवहारप्राणीकी दशाको आकुलता दूर करनेके लिये सहज चैतन्यप्राणमात्र अन्तस्तत्त्वका अनुभव करना ॥१४६।। ।
अब निरुक्ति द्वारा प्रारणोंको जीवत्वका हेतुत्व और उनका पोद्गलिकत्व सूत्रित करते है यः हि] जो चतुभिः प्राणः] चार प्राणोंसे [जीवति | जीता है, [जीविष्यति] जियेगा, [ पूर्व जीवितः ] और पहले जोता था, [ सः जीवः ] वह जीव है । [पुनः] और प्रारणाः] बे प्राण [पुद्गलद्रव्यैः निर्वृताः] पुद्गल द्रव्योंसे रचित हैं।
तात्पर्य-संसारमें जीव पौद्गलिक प्राणोंके सम्बन्धसे उस उस भव में जीता है, किन्तु । यह जीवका स्वभाव नहीं।
टीका-.-.-जो प्रारणसामान्यसे जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है ।
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