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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
तथा सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्यायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गल संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीयत्वहेतु विभक्तव्योऽस्ति ॥ १४५ ।।
तुकाभिसंबद्ध | मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, अन प्राणने । उभयपदविवरण- सपदेहि प्रदेोः अहि अर्थ- तृतीया बहुवचन । समग्गो समग्रः लोगो लोकः णिच्चो नित्यः जो यः जीयो जीवः पाणचक्काभि
प्राणचतुष्काभिसंबद्ध: - प्रथमा एकवचन । तं द्वितीया एक० । जाणदि जानाति वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। rिट्टिदो निष्टितः प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति--समं सकलं यथा स्यात्तथा गृह्यते इति समग्र, नियमेन भवः नित्यः प्राणिति जीवति अनेन इति प्राणं समास -- प्रदेशेन सहिताः सप्रयातः प्राणानां चतुष्कं प्राणचतुष्कं तेन अभिसंबद्धः प्रा
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लोक [निव्यः ] नित्य है, [तं] उसे [यः जानाति ] जो जानता है [ जीव: ] वह जीव है, [प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ] जो कि संसार दशामें चार प्राणोंसे संयुक्त है ।
तात्पर्य - जो जाने यह जीव हैं और संसारी जीव इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणोंसे संयुक्त है ।
टीकार्थ - इस प्रकार प्रदेशका सद्भाव है जिनके ऐसे प्राकाशपदार्थसे लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थोंसे संपूर्णतको प्राप्त जो समस्त लोक है उसको वास्तव में, उसमें अन्तर्भूत होनेपर भी, स्वपरको जाननेकी अचिन्त्य शक्तिरूप सम्पत्तिके द्वारा जीव हो जाता है, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं, परन्तु जीवद्रव्य ज्ञेय तथा ज्ञान है; इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयका विभाग है । अब इस जीवके सहजरूपसे ( स्वभावसे (ही) प्रमंद अनन्तज्ञानशक्ति हेतु है जिसका और तीनों कालमें अवस्थायित्व लक्षण है जिसका ऐसा, वस्तुका स्वरूपभूत होनेसे सर्वदा श्रविनाशी निश्चयजीवत्व होनेपर भी, संसारावस्था में पत्तादिप्रवाहरूपसे प्रवर्तमान पुद्गलसंश्लेषके द्वारा स्वयं दूषित होनेसे उसके चार प्राणोंसे संयुक्ता व्यवहारजीवत्वका हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ।
प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाया में कालद्रव्यविषयक वर्गान कर चुक्नेपर शेयतत्त्व का वर्णन समाप्त कर दिया गया । अब ज्ञानज्ञेयविभाग द्वारा अपने विविक्त सहज स्वरूपका • निश्चय करनेके लिये व्यवहार जीवत्वके कारणका इस गाथामें विचार किया गया है।
तथ्य प्रकाश----- -- ( १ ) समग्र द्रव्यों में केवल जीव ही जाननहार पदार्थ है, क्योंकि जीवमें स्वपरका परिच्छेदन ( विभाग जानन) को शक्ति है । ( २ ) जीवद्रव्य ज्ञान है व ज्ञेय भी (३) पुद्गल, धर्म, प्रधर्म, श्राकाश व काल ये ५ प्रकारके द्रव्य ज्ञेय ही हैं । (४) जीव स्वरूपतः अनन्तज्ञानशक्तिका हेतुभूत सहजज्ञानस्वभावमय है । (५) जीव में संसारावस्था में मनादिप्रवाहसे चले आये पुद्गलोंसे संश्लिष्ट होनेसे चार प्राणोंसे संयुक्त है । (६) यही प्राण
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