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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
पय प्राणानां पौद्गलिकत्वं साधयति -.
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जीव पाव बद्धो मोहादिएहिं कम्मे हिं । उवभुज कम्मफलं वज्झदि गोहिं कम्मेहिं ॥ १४८ ॥ प्रानिवद्ध जीव यह, मोहादिक कर्मसे बँधा होकर ।
भोगता कर्मफलको, बँध जाता द्रव्यकमोंसे ॥ १४८ ॥
जीवः प्राणनिबद्धो बढो मोहादिकः कर्मभिः । उपभुजानः कर्मफल बध्यतेऽन्यैः कर्मभिः ॥ १४८ ॥ यतो मोहादिभिः पौद्गलिक कर्मभिद्धत्वाज्जीवः प्राणनिबद्धो भवति । यतश्च प्राणनामसंज्ञ जीव पाणवद्ध बद्ध मोहादि कम्म अवतार कम्मफल अण्ण कम्म । धातुसंज्ञ बंध बघते । प्रातिपदिक-जीव प्राणनिबद्ध वह मोहादिक कर्मन् उपभुंजान कर्मफल अन्य कर्मन् । मूलधातु
सिद्धान्त - 1१) पुद्गलकर्म उपाधिके सान्निध्य में जीव चार प्राणोंसे जीता है । दृष्टि - १ - उपाचिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय (५३) ।
प्रयोग- इन्द्रिय, बल, ग्रायु, ग्रानपान प्राणोंको पौद्गलिक जानकर इनसे भिन्न अपने शाश्वत चैतन्यप्राणमय अपनी आराधना करना ।।१४७।।
ve प्राणोंका पौगलिकपना सिद्ध करते हैं -- [ मोहादिकैः कर्मभिः ] मोहनीय श्रादिक mite [ra: ] बँधा हुआ [ जीव: ] जीव [प्राणनिबद्धः ] प्राणोंसे संयुक्त होता हुआ [ कर्मफलं उपभुजानः ] कर्मफलको भोगता हुआ [ श्रन्यः कर्मभिः ] नवीन कर्मोस [ बध्यते ] बँधता है । तात्पर्य -- यह संसारी जीव मोहनीयादि कर्मसे बंधा हुआ प्राणसंयुक्त होकर कर्मफल को भोगता हुआ नवीन कर्मोसे बँधता रहता है।
टोकार्थ - चूंकि मोहादिक पौद्गलिक कर्मोसे बँधा हुम्रा होनेसे जीव प्राणोंसे संयुक्त होता है, और चूंकि प्रारणोंसे संयुक्त होनेके कारण मौद्गलिक कर्मफलको भोगता हुआ फिर भी अन्य पौद्गलिक कर्मोसे बँधता है, इस कारण पौद्गलिक कर्मका कार्यवना होनेसे और पौगलिक कर्मका कारणपना होनेसे प्रारण पौद्गलिक ही निश्चित होते हैं ।
प्रसंगविवरण प्रनन्तरपूर्व गाथामें जीवके जीवत्वव्यवहारका हेतु चार प्रारणोंको बताया गया था । अब इस गाथामें प्राणोंकी पौगलिकता सिद्ध की गई है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) मोहादिक पौद्गलिक कर्मोसे बद्ध होनेके कारण जीव चार प्राणों से संयुक्त होता है । ( २ ) प्राणसंयुक्त होने से पौद्गलिक कर्मफलोंको भोगता हुमा यह जीव ग्रन्य पौगलिक कर्मोसे बँध जाता है । ( ३ ) इन्द्रिय बल आदि प्राण पौगलिक कर्मके कार्य है व पौगलिक कर्मके कारण हैं, अतः प्राण पौगलिक हैं । (४) मोहादिकर्मबन्धनबद्ध