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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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अयं कालपवार्थस्यास्तित्वान्यथानुपपत्त्या प्रदेशमात्रत्वं साधयति----
जस्म गण संति पदेसा पदेसमेतं व तचदो णादु। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदोः ॥१४४॥ जिसका प्रदेश नहिं हो, वह शून्य हुअा पदार्थ कैसे हो ।
क्योंकि प्रदेशरहित तो, सत्तासे भिन्न कुछ न रहा ।। १४४ ॥ यस्य । सन्ति प्रदेशाः प्रदेशमात्र या तत्त्वतो ज्ञातुम् । शून्यं जानीहि तमर्थमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ।।१४४।। PC अस्तित्वं हि तावदुत्सादव्ययध्रौव्यै क्यात्मिका वृत्तिः । न खलु सा प्रदेशमन्तरेया सुम्यमाशा कालस्य संभवति, यतः प्रदेशाभावे वृत्तिमदभावः । स तु शून्य एव, अस्तित्वसंज्ञाया
नामसजजण पदेस पदे समेत व तच्चदो सुण्ण त अत्थ अत्यंतरभूद अस्थि । धातुसंज्ञ-अस सत्तायां, वाण अवबोधने । प्रातिपदिक-यत् न प्रदेश प्रदेशमात्र वा तत्त्वत: शून्य तत् अर्थ अर्थान्तरभूत अस्तित्व । मलयाल - अस् भुवि, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण-जस्स यस्थ-पष्ठी एक० । नव वा-अव्यय । पदसरा प्रदेशाः-प्रथमा बहु० । पद शमत्तं प्रदेशमात्र-प्रा एक । तच्चदो तत्वत:--अध्यय पंचम्यर्थे । विशेषोका विकल्प छोड़कर निज परमात्मद्रव्यमें उपयोगको लगान। व रमाना ॥१४३।।
अब कालपदार्थके अस्तित्वको अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा कालपदार्थका प्रदेशमात्रत्व "सिट करते हैं-[यस्थ] जिस पदार्थ के [प्रदेशाः] प्रदेश [प्रदेशमात्रं वा] अथवा एकप्रदेश
ओ तस्वतः] परमार्थतः [ज्ञातुम् न संति जाननेके लिये नहीं हैं, [तं अर्थ] उस पदार्थको शिन्य जानीहि शन्य जानो [अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतम्] क्योंकि वह अस्तित्वसे अर्थान्तरभूत मति प्रन्य है।
तात्पर्य--जिसके प्रदेश नहीं वह पदार्थ ही नहीं है । ME टोकार्थ-अस्तित्व तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको ऐक्यरूपवत्ति है । वह प्रदेशके बिना हो कालके होती है यह कथन संभवता नहीं है, क्योंकि प्रदेशके अभाव में वृत्तिमानका प्रभाव होता है । सो अस्तित्व नामक वृत्तिसे अर्थान्तरभूत होनेसे बह तो शून्य हो है और मान वृत्ति ही काल हो नहीं सकती, क्योंकि वृत्तिमानके बिना वृत्ति नहीं हो सकती । यदि "यह कहा जाय कि वृत्तिमानके बिना भो वृत्ति हो सकती है तो, अकेली वृत्ति उत्पाद व्यय मोध्यको एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि ---'अनादि अनन्त निरन्तर पनेरू प्रशोंके कारण एकात्मकता होती है इसलिये, पूर्ण पूर्व प्रेशका नाश होता है, और उत्तर उत्तरके अंशोंका उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है, इस प्रकार मात्र अकेली वत्ति भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतास्वरूप हो सकती है। तो ऐसा नहीं है । क्योंकि
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