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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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..... २६२ . . . . :
· · किंतु जोवस्य प्रदेशसंवर्तविस्तारधर्मत्वात् पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुणधर्मत्वाच्च संदेश . .: देशंसर्वलोकनियमोनास्ति कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुन
रजनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ॥ १३६ ।। सप्तमी बहु० । णभो नभः-प्र० एकः । धम्माधम्महि-तृतीया बहु० ५ बर्माधर्माभ्यां-तृतीया हिवचन ।। आददो आततः लोगो लोक: कालो कालः-प्रथमा एक० । पाच प्रतीत्य-असमाप्तिकी क्रिया । जीव जीवाः पोग्ग ला पुदगला:-प्रथमा बहुः । संसा- बहु० । शेष-प्रथमा द्विवचन । निरुक्ति---'लोक्यन्त सर्वाणि द्रव्याणि यत्र स लोकः, नयन्ति पदाथोः अत्र तत् नभः । समास-लोकश्च अलोकरच लोकालोको तयोः, धर्मश्च अधर्मश्च धर्माधमौ ताभ्याम् ।। १३६ ।। विस्तार धर्म होनेसे और पुद्गलका बंधहेतुभूत स्निग्ध रूक्ष गुरण धर्म होनेसे जीव और पुपान का समस्त लोकमें या उसके एकदेश में रहनेका नियम नहीं है। पौर, काल, जीव तथा पुनः ।। गलोंका एक द्रव्यको अपेक्षासे लोकके एकदेश में और अनेक द्रव्योंकी अपेक्षासे काजलसे भरी हुई डिबियाके न्यायानुसार समस्त लोकमें ही अवस्थान है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्योंकी एकप्रदेशित्व व बहुप्रदेशत्व विषयक विशेषता बताई गई थी। पब इस गाया में यह बताया गया है कि ये एकप्रदेशी व बहुप्रदेशो द्रश्य कहाँ अवस्थित हैं।
तथ्यप्रकाश----- १- प्राकाश द्रव्य लोक व अलोकमें है । २-- प्राकाशश तो असीम एक अखण्ड द्रव्य है । ३- प्राकाशके जितने भागमें पुद्गल धर्म अधर्म व कालद्रव्य अवस्थित है। उतने भागको लोक कहते हैं, शेष समस्त ब्रहों ओरका असीम अाकाशको प्रलोक कहते हैं। ४- धर्म व अधर्म द्रव्य एक एक ही हैं और वे समस्त लोकमें व्यापक हैं। ५-- जीव और पुद्गल द्रव्य लोकमें ही हैं और उनकी गति व स्थितिके निमित्तभूत धर्म व अधर्म द्रव्य हैं, सो धर्म अधर्मद्रव्य भी लोकमें ही हैं। ६- कालद्रव्य लोकमें ही हैं और उनको समय घड़ी श्रादि पर्याय जीव व पुद्गलोंकी नई पुरानी परिणतियोंसे प्रकट विदित होती हैं । ७- सभी पदार्थ निश्चयसे अपने अपने स्वरूप में ही रहते हैं जैसे कि सिद्ध भगवान केवलज्ञानादिके प्राधारभूत लोकाकाश प्रमाण निज प्रदेशों में ही रहते हैं । ८- व्यवहारसे समस्त पदार्थ लोक में रहते हैं जैसे कि सिद्ध भगवान व्यवहारसे सिद्ध क्षेत्रमें रहते हैं । ६-- यद्यपि जीव अनन्ता नन्त हैं व पुद्गल जीवोंसे भी अनन्तगरणे हैं तो भी विशिष्ट अवगाह शक्ति होनेसे सब लोकमें ही समाये रहते हैं । १०- जीवमें प्रदेशोंका संकोच विस्तार होने की शक्ति है, उसके कारण प्रदेशसंकोचको स्थितिमें लोकके यथायोग्य एकदेशमें जीव रहता है, लोकपूरण समुद्घातमें प्रदेशविस्तारकी स्थितिसे समम्र लोकमें रहता है । ११-- पुद्गल द्रव्य एकप्रदेशी होनेसे लोक
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