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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ स्वामी प्रदेशिनोऽप्रवेशाचावस्थिता इति प्रलापयति--
लोगालोगेसु गाभो धमाधम्मेहि श्राददो लोगो। सेसे पडुन कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥१३६॥ ___ लोक अलोकमें गमन, लोकमें धर्म अधर्म सर्वत्र ।
काल लोकमें नाना, नानाकृत जोव पुद्गल भी ।।१३६॥ लोकालोकायोनंभो धर्माधर्माभ्यामातसो बोकः । शेष| प्रतीत्य कालो जोत्राः पुन: पुद्गलाः शेपो ।।१३।।
। आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि षड्द्र व्यसमवायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात् । वधिमी सर्वत्र लोके तन्निमित्तगमतस्यानानां जोवपुद्गलानां लोकाबहिस्तदेकदेशे च म पन
यातासंभवात् 1 कालोऽपि लोक जीवपुद्गलपरिणाम व्यज्यमानममयादिपर्यायत्वात, स तु लोन. कप्रदेश एवाप्रदेशत्वात् । जोयपुद्गली तु युक्ति। एत्र लोके घद्यसमवायात्मकत्वाल्लोकस्य । नामसज...-लोगालोग गभ धमाधम आदद लोग सेस काल' जीव पुण पोग्गल सेस । धातुसंज्ञ--पडि गतो, आतण विस्तारे। प्रातिपदिक ----लोकालोक नभस् धर्माधर्म आतत लोक शेष काल जोक मुनर पदाल शैष । मूलधातु-प्रति इण् गता, आ तत् विस्तार । उभयपदविवरण- लोगालोगेमु लोकालोकेषु
प्रयोग--एकप्रदेशी बहुप्रदशी समस्त परस्वरूपसनसे उपयोग हटाकर निजस्वरूपसत् चिदब्रह्ममें उपयुक्त होना ।।१३।।
अब प्रदेशी और अप्रदेशो द्रब्य कहाँ रहते हैं यह ज्ञान कराते हैं.--[नमः आकाशसवय लोकालोकयोः) लोकालोक में है, [लोकः] लोक [धर्माधर्माभ्याम् पाततः] धर्म और मधर्मद्रव्यसे व्याप्त है, [शेषो प्रतीत्य] शेष जोव, पुद्गल इन दो द्रव्योंका आश्रय लेकर कालः] काल है, [पुनः] और [शेषो] वे शेप दो द्रव्य [जीवाः पुद्गलाः] जीव और पुद्गल
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तात्पर्य--अस्तिकाय और अकाय सभी द्रव्य लोकमें ही रहते हैं।
टीकार्थ- अाकाश तो लोक तथा अलोकमें है, क्योकि वह छह द्रव्यों के समवाय और समवायमें बिना विभागके रहता है । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोकमें है, क्योंकि अके निमित्तसे जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलोंकी गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती, और न लोक के एक-देश में होती है। काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्गलोंके परिणाम के द्वारा कालकी समयादि पर्याय व्यक्त होतो हैं; और वह काल नोकके एकप्रदेश में ही है, क्योंकि वह अप्रदेशी है। जीव और पुद्गल तो अवशेष न्यायसे ही लोकमें हैं, क्योंकि लोक छह द्रव्योंका समवायस्वरूप है । और क्या कि जोवका प्रदेशसंकोच