________________
-
irattimes ProtremfimthimYARTHWAY
प्रवचन सार-सप्तदशांगी टीका
२४६ स्वात परिणामेनोपात्तान्वयव्यतिरेकाण्यवतिष्ठमानोत्पद्यमानभज्यमानानि भाववन्ति भवन्ति । पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूततकमनोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति ।। १२६ ।। भेदान-पचमी एकवचन । जायते जायन्ते-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया। निरुक्ति-उत्पादनं उत्पादः, बात स्थितिः, भज्जनं भङ्गः, संहननं संधातः, भेदनं भेदः । समास---उत्पादश्च स्थितिरन्न भङ्गश्च उत्पादस्थितिमङ्गाः ।। १२६ ॥ पूयक हए, वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं।
प्रसंगाविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यका लोक अलोकपनेका विशेष निश्चित किया या। अब इस गाथामें द्रव्यके भावोंका क्रियारूप व भावरूप भेद निश्चित किया है ।
तथ्यप्रकाश --- (१) सर्व द्रव्योंमें कुछ द्रव्य तो क्रियावान व भाववान हैं और कुछ द्रव्य क्रियावान नहीं, किन्तु केवल भाववान हैं । (२) जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रिया: वान भी हैं व भाववान भी हैं, क्योंकि इन द्रव्योंमें परिस्पन्द भी है और परिणाम भी है । 113) धर्मः अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य केवल भाववान है, क्योंकि इनमें परिस्पन्द नहीं है केवल परिणमन ही है।
सिद्धान्त--(१) पदार्थों को क्रियाका अाधार क्रियावती शक्ति है। (२) भावरूप परिणमनका आधार भाववती शक्ति है ।
दृष्टि-१- क्रियावती शक्ति दर्शक प्रशुद्ध द्रव्यायिकनय (२७ अ) । २- भाववती गक्ति दर्शक अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२७ ब)। का प्रयोग---निर्विकल्प प्रानन्दकी प्राप्तिके लिये भाववती शक्तिका प्राश्रय कर अपनेको भावमात्र निरखना ॥ १२६ 11
अब यह बतलाते हैं कि गुणोंके भेदसे द्रव्योंका भेद होता है— [यः लिगः] जिन लिगोंसे [द्रव्यं] द्रव्य जोवः अजीवः च] जीव और अजीवके रूपमें [विज्ञातं भवति] ज्ञात होता है, [ते] वे [तद्भावविशिष्टाः] तद्भाव विशिष्ट उस उस स्वरूपसे युक्त [मूर्तामूर्ताः] मूर्त-प्रमूर्त [गुणाः] गुण [ज्ञेयाः] जानने चाहिये।
का तात्पर्य-जिन जिन लक्षणोंसे जीवादिक पदार्थ ज्ञात होते हैं उन लक्षणोंरूप वे गुण . कहलाते हैं।
टीकार्थ---द्रव्यका प्राश्रय लेकर और परके आश्रयके बिना प्रवर्तमान जिनके द्वारा