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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
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रूपत्वेन गौतमानयानपायिन्या भगवत्या संवित्तिरूपया चेतनया तत्परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निवृत्तत्वमवतीर्ण प्रतिभाति म जीवः । यत्र पुन रुपयोगसहचरिताया ययोदिनुलक्षणायाश्चेतनाया प्रभावाबहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतारगं प्रतिभाति सोऽजीवः ।।१२७॥ जीवो जीव दणोबओगमओ चेतनोपयोगमयः पोग्गल दवाप्पमुहं पूगलद्रव्यप्रमुखः अचेदणं अचेतनः "अभीचे अजीव:--प्रथमा एकवचन । हदि भवति-वर्तमान अन्य पुरशाद एकवचन क्रिया । निरुक्ति-न्द्रबति दोपति अदुद्रुवत् यदिति द्रव्य, जीवति जीविष्यति अजीवत् योसो जीवः । समास----पुद्गलद्रभ्यं प्रमुखं या मः पुदगलद्रव्यप्रमुखः ।। १२७ ।। तरित प्रतिभासता है वह जीव है । और जिसमें उपयोगके साथ रहने वाली, यथोक्त लक्षण माली चेतनाका प्रभाव होनेसे बाहर तथा भीतर अचेतनत्व अवत्तरित प्रतिभासता है, वह
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. प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें मात्र जान स्वरूपको प्राप्ति होनेपर शुद्धात्माकी अपलविध होना बताया गया था। अब इस गाथासे द्रव्यविशेषका प्रज्ञापन किया जायगा जिसमें इस गाथामें द्रव्यके जीव व अजीव ये दो प्रकार बताये गये हैं।
तथ्यप्रकाश.---१- द्रव्य द्रव्य सब द्रव्य हैं इस दृष्टिसे द्रव्य में द्रव्यत्व सामान्य है। - द्रव्यमें विशेषलक्षणका सद्भाव अवश्य है जिसके कारण एकद्रव्य दूसरे द्रव्य से अन्य है यह जाना जाता है। ३- द्रव्यमें अन्योन्यव्यवच्छेद होनेसे द्रदयके मूलमें जीव व अजीव ये दो प्रकार है। ४- जीव तो सब प्रात्मद्रव्य है । ५-- अजीवके ५ प्रकार हैं--पुद्गलद्रव्य, बर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, भाकाशद्रव्य व कालद्रव्य । ६- जीवका विशेष लक्षण चेतना एवं उपयोग है क्योंकि जोवद्ध भगवती चेतनाके द्वारा व चेतनाके परिणामस्वरूप उपयोग द्वारा रचित है। - अजीवका विशेष लक्षरण अचेतनपना है, क्योंकि उसमें चेतनाका अभाव होनेसे शक्ति व व्यक्ति दोनों में अचेतनपना है।
सिद्धान्त--१- लक्षणभेदसे जीव व अजीवमें विलक्षणता ज्ञात होती है।
दृष्टि-- लक्षण्यनय (२०३) । - प्रयोग--अपना लक्षण निरखकर अपनेको पहचानकर अलक्षण अन्य तत्त्वोंसे विविक्त स्वलक्षणमात्र प्रत्तस्तत्त्वको उपासना करना ॥१२७॥
- अब लोकालोकपनेके विशेषको निश्चित करते हैं [पाकाशे] अाकाशमें [यः] जो भाग पगलजीवनिबद्धः पुद्गल और जीवसे निबद्ध है, तथा [धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्यः वर्तते] प्रमास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालद्रव्यसे युक्त है, [सः] वह [सर्वकाले तु] सदा ही
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