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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका
परमाणविकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिशतिने जातु जायते । परमाणुरिवभाविकत्वश्च परेण तो संपुच्यते । ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति । कर्तृकररणकर्म कर्म फलानि चासत्वेन भावयन् पर्यायैर्न संकीर्यते, ततः पर्यायासंकीर्णत्वान्च सुविशुद्धो भवतीति ॥ द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमञ्जितसमस्त विशेषजातः । इत्येष शुद्ध नय उद्धतमोहलक्ष्मीलू"टाक उत्कट विवेकविविक्ततत्त्वः ॥७॥ इत्युच्छेदात्वरपरिणतेः कर्तुं कर्मादिभेदस्रान्तिध्वंसादपि सुविराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चि मात्रे महसि विशदे मूच्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युवाह महिमा सर्वदा मुक्त एव ||८|| द्रव्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञान॥ इति द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनम् ।। १२६ ।।
तीति कर्ता क्रियते अनेनेति करणं क्रियते यतु कर्म ॥। १२६ ।।
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शुद्धात्माको हो प्राप्त होता है । (४) ज्ञानीके चिन्तनमें केवल ग्रात्मा ही सब काररूप है । ( ५ ) जब मैं कर्मविपाकसे आरोपित विकार वाला था तब भी मैं ही अकेला उपरक विभावसे परिणमता हुआ स्वतंत्र कर्ता था । (६) विकारपरिगमन के समय मैं ही केला
रक्त पित्स्वभावसे साधकतम कारण था । (७) विकारपरिगमन के समय मैं ही विकारपररूप हुआ अकेला अपने द्वारा प्राप्य कर्म था । (८) विकारपरिणमन के समय में ही मला उपरक्तचित्परिणमन स्वभावका निष्पाद्य क्लेशरूप कर्मफल था । ( ६ ) अब मैं उपाधिविध्वंस से प्रकट सहजात्मवृत्ति वाला परारोपित विकार से अनाक्रान्त मोक्षाभिलाषी हुआ हूं सो इस समय भी मैं अकेला ही विशुद्ध चित्स्वभावसे स्वतंत्र कर्ता हूं । (१०) विकारप्रशमन समय में ही अकेला विशुद्धचित्स्वभावसे साधकतम करण हूँ। ( ११ ) विकारप्रशमन के समय मैं ही केला विशुद्ध चित्स्वभावरूप परिणमने वाला श्रात्मा द्वारा प्राप्य कर्म हूं । ( १२ ) frerrarach समय में हो अकेला विशुद्ध वित्स्वभावका निष्पाद्य अनाकुल स्वरूप सहज मानन्दरूप कर्मफल हूं । (१३) बन्धपद्धति व मोक्षपद्धति में कारकभूत यह मैं एक ही आत्मा "हूँ। (१४) बन्धपद्धति व मोक्षपद्धतिमें एक ग्रात्माको ही निरखने वाले भव्यात्माके परद्रव्य परिणति नहीं होती है । (१५) एकत्वनिश्चयगत जीवके परद्रव्यसंपर्क नहीं होता । (१६) मामा परद्रव्यसंपर्क रहित हो जानेसे शुद्ध हो जाता है । ( १७ ) कर्ता, करण, कर्म व कर्मफल को प्रात्मरूपसे भाने वाला पर्यायोंसे संकीर्ण नहीं होता । ( १८ ) पर्यायोंसे संकीर्ण न होने वाला जीव सुविशुद्ध होता है ।
सिद्धान्त - - ( १ ) सोपाधि स्थिति में कर्ता करण कर्म कर्मफल परारोपित विकार वाला यह जीव है । (२) निरुपाषि स्थिति में कर्ता करण कर्म कर्मफल यह निर्विकार जीव है ।