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सासमाslesham
प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति--
(णाणं अवियप्पो)कम्म जीवेण जं समारद्ध। तमोगविध भणिदं फलं ति सोकवं व दुक्खं वा ।।१२४॥ ज्ञान अर्थावभासन, कर्म हुआ जीवभावका होना ।
उसका फल है नाना, सुख अथवा दुःखका होना ॥१२४॥ ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन वत्समारब्धम् । तदननावि भगि मिति सोम वा दुःखं वा ।। १२४ ॥
अर्थविकल्पस्तावत् ज्ञानम् । तत्र कः खल्धर्थः, स्वपरविभागनाव स्थितं विश्व (विकल्प. स्तदाकारावभासनम् यस्तु मुरुन्दहुदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोर्थविकल्पस्तद् ज्ञानम् । क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाणः खल्वात्मा प्रतिक्षण तेन सेन भावेन भवता यः
नामसंज्ञ-णाण अन्बियार कम्भ जीब ज समारद र अगबिध णिद फल निमोक्ख व दुख का | घातसंज्ञ-रंभ आरंभ, भण कथ ले । प्रातिपदिक- शान अर्थविकल्प कर्मन जीन यत् समारब्ध तत् अनेकविध भणित फल इति सौख्य वा दुःख वा । मूलधातु .. २म रामस्ये, भण शब्दार्थ: । उभयपदधिवसुख व दुःख कर्मफल है। को टीकार्थ-वास्तवमें अर्थविकल्प ज्ञान है। वहाँ अर्थ क्या है ? स्व-परके विभागसे प्रवस्थित विश्व अर्थ है । उसके प्राकारोंका अवभासन विकल्प है । सो जो दर्पशाके निजवि. स्तारकी तरह जिसमें एक ही साथ स्व. पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थविकल्प ज्ञान है। जो प्रात्माके द्वारा किया जाता है वह कर्म है । प्रतिक्षण उस उस भाव से होता हुमा मात्माके द्वारा वास्तवमें किया जाने वाला जो उसका भाव है वहीं, आत्माके द्वारा प्राप्य होने से कम है। और वह कर्म एक प्रकारका होनेपर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्यके सद्भाव
और असद्भावके कारण अनेक प्रकारका है 1 उस कर्मसे निष्पाद्य सुख-दुःख कर्मफल है । यहाँ दिव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्य के असद्भावके कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्व लक्षण बाला स्वाभाविक सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिके सान्निध्यक सद्भावके कारण जो कर्म होता है, उसका फल सौख्यका लक्षण अनाकुलता न होनेसे विकृतिभूत दुःख है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफलके स्वरूपका निर्णय है ।
प्रसंगविवरण ----अनंतरपूर्व गाथा में प्रात्मा जिस स्वरूपसे परिणामता है उस स्वरूपको प्रकट किया गया था। अब इस गाथामें ज्ञान, कर्म व कर्मफलका स्वरूप वणित किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) अर्थविकल्पको ज्ञान कहते हैं। (२) एक स्व और अनन्त पर । समस्त सत पदार्थोको अर्थ कहते हैं । (३) पदार्थोके प्राचारके अवभासनको अर्थात् पदार्थोके