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प्रवचनसार-सप्तशाली टीका
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प्रय कि तत्स्वरूप घेनामा परिणमतीति तदावेदयति
परिशामदि चेदग्णाए आदा पुगण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण या कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भगिदा ।। १२३ ॥
परिण चेतनासे, अामा अरु चेतना विधा होती।
ज्ञान कर्म विष्फलमें, होलेसे स्वत्वसंचेतन ॥१२३॥ FD परिणति चेलनया आत्मा पुनः चेतना विभाभिमाता । सा पुनः ज्ञाने आणि फल या कमणों भगिता ।।१२३।। । Prima यतो हि नाम चैतन्यमात्मनः स्वधर्मव्यापक त्वं, ततश्चतनवात्मनः स्वरूप तया खल्बा
मा परिणामति । य: कश्चनाप्यात्मनः परिणामः रा सोऽपि चेतना नातिवर्तत इति तात्पर्यश् ।
नामसंज-चंदणा अत्त पुण निधा अभिमदा व पुण गाण कम्म फल या कम्म भनिदा । धातुEii मनपरि गम प्रत्ये, भण काथने । प्रातिपदिक-..चेतना आत्मन् पूनर चेतना विधा अभिमता तत् ज्ञान कमन फल वा कर्मन् भणिता। मूलधातु... परि णम प्रहाचे, निती संज्ञाने, अभि मनु अवोधने, मण
सिद्धान्त --...(१) जीव जीवायकारका कता है। (२) जीव द्रव्यकर्मका अकर्ता है। अ ष्टि --... -- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)।
प्रयोग--मैं अपने परिणामका ही कर्ता हूं अन्य कादिकका नही ऐमा जानकर १२. विषयक विकल्प छोड़कर अपने अपना ही स्वरूप निरखना ।।१२२॥
अब वह कौनसा स्वरूप है जि रूपसे यात्मा परिणमता है इसके उत्तर में उस स्व. रूपको अपनी ओर भांकते हैं.— [मात्मा] प्रात्मा [चेतनया] चेतनारूपसे [परिणमति] परिणामता है । [पुनः] और चेतना] चेतना [विधा अभिपता] तीन प्रकारसे मानी गई है। पुनः] प्रति [सा] बह चेतना [शाने] ज्ञान में, [कर्मणि कर्म में हवा] अथवा [कर्मणः फले] कर्मफल में [भरिगता] कही गई है।
तात्पर्य ----शात्मा ज्ञान नेतना, कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके रूपसे परिणामता है।
टोका-..-चूंकि निश्चयतः चैतन्य प्रात्माका स्वधर्मव्यापकत्व है, इस कारण चेतना हो प्रात्माका स्वरूप है; उसरूपसे वास्तव में आत्मा परि.!मता है । प्रात्माका जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतनाका उल्लंघन नहीं करता, यह तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूपसे तीन प्रकारको है। उनमें ज्ञानपरिणति तो ज्ञानचेतना है, कमपरिणति कर्मचेतना है और कर्मफलपरिणति कर्मफलचेतना है।
प्रसंगविवरण.-...-अनन्तरपूर्व गाथा परमार्थसे जोबको द्रव्यकर्मका अकर्ता प्रकट किया गया था। अब इस गाथामें आत्माका वह स्वरूप बताया गया है जिस स्वरूपसे प्रात्मा परि
HERESTHA