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सहजानन्दशास्त्रमालायां अर्थवमात्मनो ज्ञेयतामापन्नस्यशुद्धत्वनिश्च्यात् ज्ञानतत्त्वसिद्धौ शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो भवतीति तमभिनन्दन द्रव्यसामान्यवर्णनामुपसंहरति -
कता करणं कम्म फलं च अप ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि गोव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध ॥१२६॥ कर्ता करण कर्म फल, चारों ही जीवको सुनिश्चित कर ।
परमें न परिणमे जो, वह पाता शुद्ध आत्माको ॥१२६॥ का करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चितवान श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते मुद्धम् ।।।
यो हि नामवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परि. गमति स एव विश्रान्तपरद्रध्यसंपर्क द्रव्यातःप्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न पुन रन्यः ।
मामसंज्ञ- कत्तार करण काम्म फल च प जि णिच्छिद समण ण एक अप्ण जांद अप युद्ध । धातु संज्ञ----परि नम नम्रीभावे, लग प्राप्तौ । प्रातिपदिक...बात करण कर्मन् फल चमात्मन् इति निश्चित
दृष्टि१- उपादान दृष्टि (४६ ब) ।
प्रयोग-परको न मैं करता हूं, परको न मैं भीगता हूं, जो कुछ मेरस होता है यह मुझमें ही मुझसे होता है, यह जानकर नि विकल्प होकर जो अपने में सहज हो उसे होने देना ॥ १२५ ॥
अब इस प्रकार ज्ञेयत्वको प्राप्त प्रात्माकी शुद्धताके निश्चयसे ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुये द्रव्यसामान्यके वर्णनका उपसंहार करते हैं ---यदि यदि [कर्ता, करणं, फर्म, कर्मफलं च श्रात्मा] 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल प्रात्मा है' [इति निश्चितः] ऐसा निश्चय कर चुका [श्रमरणः श्रमण [अन्यत् अन्यरूप [न एव परिणमति नहीं परिण मता है तो वह [शुद्ध आत्मानं] शुद्ध पात्माको [लभते] प्राप्त करता है ।
तात्पर्य----प्रात्मा ही सर्वस्व है, अन्य कुछ नहीं, ऐसा मानने वाला शुद्ध प्रात्माको प्राप्त करता है।
टीकार्थ-जो प्रात्मा इस प्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्माको निश्चय पूर्वक मानकर ही वास्तवमें परद्रव्यरूप नहीं परिणमता वही प्रात्मा जिसका पर द्रव्यके साथ संपर्क बंद हो गया है, और जिसको पर्याय द्रव्यके भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुक्षात्माको उपलब्ध करता है; परन्तु अन्य कोई नहीं। इसका स्पष्टीकरण-जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मकी बंधनरूप उपाधिकी संनिधिसे उत्पन्न हुये विकारके द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित थी ऐसा
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