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HORASRANAMA
सहजानन्दशास्त्रमालायां
कस्य द्रव्यकर्मणः । अथ द्रव्धकर्मणः कः कति चेत् । पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परि. गायः सा पुद्गलमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणई परिणामलक्षण क्रियाया प्रात्ममयत्वा ग्रुपगमात् । था च क्रिया सा पुनः पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्य कर्मग एव कर्ता, न त्वात्मपरिणामात्मकल्य भाव कर्मणः । तत मात्मात्मस्वरूपेण परिणामति न मुद्गलस्वरूपेगा परिणामति ।। १२२ ।। इति जीवमयी त्रिया वर्मन् इति मता तत् कर्मन् न तु कर्तृ । मूलधातु -- भु सत्तायां, मनु अयोधने । उनपर विवरण–परिणामो परिणाम: आदा आत्मा-प्र० एक० । सयं स्वयं पुण पुन: त्ति इति ण न दु तु- अध्याय | सा किरिया क्रिया जीवमया जीवमयी--प्रथमा एका । होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया । कृम्म कर्म-प्र० एक मदा मता-प्र. एक ! तुम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । कम्मस्स
मण:--पष्टी एकल । कत्ता कर्ता-प्र० एका० । निक्लि-परिणमन परियामः, जीवेन विर्तुत्ता जीवमयी, करोतीति कर्ता ।। १२ ।। कर्मबन्धन है और इससे नरनारकादिपर्यायात्मक संसार चलता रहता है । अब इस गाथामें जीवको परमार्थतः द्रव्यकर्गका अकर्ता प्रकट किया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) जीवका परिणाम स्वयं जीब ही है, क्योंकि परिणामी (जीव) अपने परिणामस्वरूपका कर्ता होता है और परिणामी परिणामसे अनन्य होता है । (२) जीवका परिणाम जीवमधी ही क्रिया है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यको परिणामरूप क्रिया उसी द्रव्यमय हमा करती हैं । (३) जीवको परिणामक्रिया मात्र जीवके द्वारा ही प्राप्य होनेसे जीवका कम है। (४) निश्चयतः जीव अपने भावकमका कर्ता है । (५) जीव पुद्गलपरिणामात्क द्रध्यकर्मका कर्ता नहीं है, क्योंकि किसी भी द्रव्यका अन्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव होनेसे कर्तृकर्मभाव नहीं होता । (६) पुद्गल (कर्म) का परिणाम स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी (पुद्गल) अपने परिणामस्वरूपका कर्ता होता है और परिणामी परिणामसे अनन्य होता है । (७) पुद्गलका परिणाम पुद्गल पयो हो क्रिया है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यकी परिणामस्वरूप किया उसी द्रश्यमय हुमा करती है। (८) पुद्गल की कर्मपरिणाम रूप क्रिया मात्र पुद्गल के द्वारा ही प्राप्य होनेसे पुद्गलका कर्म है । (९) निश्चयतः पुद्गलात्मक कार्माणवर्गगास्कंध अपने कर्मव परिणामका कर्ता है। (१०) पुद्गल कारिणस्कंध जीवविकारका कर्ता नहीं है, क्योंकि किसी भी अन्यका अन्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव होनेसे कारी कर्मभाव नहीं होता। (१०) निश्चय से जीव जीवस्वरूपसे ही परिणमता है पुद्गलस्वरूपसे नहीं परिणामता, अतः परमार्थसे जोव ट्रध्यकर्मका अकर्ता है।