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राहजानन्द शास्त्रमालायां अथ द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोरविरोधं साधयति-----
एवं विहं सहावे दव्वं दव्वस्थपजयस्थेहिं । सदसम्भावणिबद्ध पादुन्भायं सदा लभदि ॥१११॥ द्रव्य स्वभावमें रहकर, द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयसे ।
सदसद्भावबिगुम्फित, अपने द्रव्यत्वको पाता ॥१११॥ एवं विध स्वभा द्रब्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसद्भावनिवरं प्रादुर्भावं सदा लभते ।। ११६
एवमेतधयोदितप्रकारसाकल्याकलङ्कलाञ्छन मनादिनिधन सत्स्वभाचे प्रादुर्भावमास्क ग्दति द्रव्यम् । स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रव्याभिधेयतायां सद्भाव निबद्ध एव स्यात् । पर्यायाभिधेयतायो त्व सद्भावनिबद्ध एव । तथाहि----यदा द्रव्य मेवाभिधीयते न पर्यायास्तदा प्रभवावसान जिलाभियोगपद्यप्रवृत्ताभिव्यनिष्पादिकाभिरन्य यशक्तिभिः प्रभवायसानलाञ्छनाः क्रम : प्रवृत्ताः पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो द्रव्यस्य सद्भाव लिबद्ध एव प्रादुभावः हेमवत् । तथाहि----यदा हेमवाभिधीयते नाङ्गदादयः पयायास्तदा हेमसमानजीविताभियौं गपञ्चषवृत्ताभिहेंमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिरङ्गदादिपर्याय समानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अङ्ग__ मामसंज्ञ--एवंविहं सहाय वन्य दवत्थपज्जयत्थ सदसम्माणिबद्ध पादुभाव सदा । धातुसंज्ञ-लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक--..एवं विधं स्वभाव द्रव्य द्रव्यार्थ पर्यायार्थ सदसदावनिबद्ध प्रादुर्भाव सदा । मूलधातु-- द्रव्य ही सत् स्वयमेव है । (६) सत्ता और द्रव्य में नानापन नहीं है । (७) गुण और गुणीमें . नानापन नहीं है।
सिद्धान्त...-- (१) द्रव्य अभेद स्वभावमात्र है। दृष्टि-१- अखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
प्रयोग----तीर्थप्रवृत्तिनिमित्त किये गये गुणगुरिणच्यपदेशसे परे होकर अपनेको स्वभावमात्र निरखना ॥ ११० ।।
अब द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत् उत्पादमें अविरोधको सिद्ध करते हैं----[एवंविध] इस प्रकार [स्वभावे] स्वभावमें अवस्थित [द्रध्यं] द्रव्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां] द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंके द्वारा [सदसद्भावनिबद्ध प्रादुर्भावं] सद्भावनिबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पादको [सदा लमते सदा प्राप्त करता है ।
तात्पर्य-द्रव्यके द्रव्याथिकनयसे सदुत्पाद है व पर्यायाथिकनयसे असदुत्पाद है ।
टीकार्थ---इस प्रकार पूर्वकथित सर्वप्रकारसे निर्दोष लक्षण वाला अनादिनिधन द्रव्य सत्स्वभावमें उत्पादको प्राप्त होता है । द्रव्यका वह उत्पाद द्रव्यको कथनी के समय सद्भावनि