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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहराणीकृतस्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायारणां क्रियाफलत्वेनान्यत्वं
द्योतयति
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एसो तिथि कोई मा गात्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया feat फला धम्मो जदि फिलो परमो ॥ ११६ ॥
यी नहीं कि संसारी, जीवोंको किया प्राकृतिक न बने
fter भवफलरहित नौह, धन्य परम धर्म यौं निष्फल ॥ ११६ ॥
एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिर्वृता । क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निःफलः परमः ॥1 हि संसारt strस्थानादिकर्मबुद्गलोपाधिसन्निविप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविव नस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृ चैवास्ति । ततस्तस्य मनुष्यादिपर्यायेषु न कश्चनाप्येष एवेति
नामसंज्ञ - एतत्ति ण कोई किरिया सहावणिवत्ता अफला धम्म जदि पिफ्फल परम । धातुसंज्ञअस सत्तायां, कर करो। प्रातिपदिक- एतत् इति न कश्चित् क्रिया स्वभावनिर्वृत्ता क्रिया हि अफला द्रव्य युगपदुभय दृष्टिसे नित्य प्रवक्तब्य हो है, क्रमशः पर्याय युगपदुभयदृष्टिसे ग्रनित्य प्रवक्तव्य ही हैं, क्रमशः द्रव्य पर्याय व युगपदुभयद्दष्टिसे नित्य श्रनित्य प्रवक्तव्य ही है । ( ७ ) सप्तभगी प्रत्येक मंगोंमें अपेक्षा और निश्चय दोनों होने से उनका द्रव्यमें कुछ भी विरोध नहीं है और नर संदेह है ।
सिद्धान्त - (१) वस्तुको ज्ञप्ति सात भंगोंमें होती है ।
दृष्टि- १-३- अस्तित्वनय, नास्तित्वनय, वक्तव्यनय, अस्तित्वनास्तित्वनय, अस्तित्वा वक्तव्यनय, नास्तित्वावक्तव्यनय, ग्रस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यनय ( १५४ - १६० ) ।
प्रयोग - विविध नयोंसे अपना परिचय प्राप्त करके सर्वे नयोंसे अतीत सहज अन्ततत्व तुभवका पौरुष होने देना ॥ ११५ ॥
निर्णय किये जानेके रूपसे उदाहरणरूप किये गये जीवके मनुष्यादि पर्यायोंका क्रियाफलपने के रूपसे उनका श्रन्यत्व प्रकाशित करते हैं [ एषः इति कश्चित् नास्ति ] सदा यही है ऐसी संसार में कोई पर्याय नहीं है, [स्वभाव निर्वृता किया नास्ति न ] और विभाव पर्याय स्वभाव से निष्पन्न अर्थात् प्रकृतिनिष्ठान्न क्रिया नहीं हो सो भी बात नहीं है, [ क्रिया हि प्रफला नास्ति ] विकारक्रिया नरनारकादि पर्यायरूप फल देनेसे रहित नहीं है, [ यदि हि परमः धर्मः निष्फलः ] जब कि निर्विकार परमात्मकी उपलब्धिरूप धर्म मनुष्यादिपर्यायरूप फल देने वाला नहीं है ।
तात्पर्य- विकार क्रियायें नाना सांसारिक पर्यायरूप फलोंको देती हैं और वे पर्यायें